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________________ कंस का पराक्रम सुक्तिमति नगरी के राजा वसु ४ का सुवसु नामक पुत्र, मन-दुःख होने से घर से निकल कर चल दिया और नागपुर पहुँचा । उसके 'बृहद्रथ' नामक पुत्र हुआ और वह भी वहाँ से चल कर राजगृह में रहने लगा। उसकी सतति में बृहद्रथ नाम का राजा हुआ और उसका पुत्र ' जरासंध' हुआ । ' जरासंध' बड़ा पराक्रमी और प्रतापी नरेश हुआ। वह बढ़ते-बढ़ते तीन खण्ड का अधिपति-प्रतिवासुदेव हो गया । जरासंध नरेश ने दूत भेज कर राजा समुद्रविजय को आज्ञा दी कि; "वैताढय गिरि के निकट सिंहपुर नगर का राजा सिंहरथ है । वह विरुद्धाचारी हो गया है । इसलिए उसे बन्दी बना कर मेरे पास लाओ। मैं इस कार्य को सम्पन्न करने वाले को अपनी पुत्री कुमारी ‘जीवयशा' और एक श्रेष्ठ नगरी का राज्य दूंगा। दूत द्वारा जरासंध नरेश की आज्ञा सुन कर राजकुमार वसुदेव ने पिता से, सिंहरथ पर चढ़ाई कर के जाने की आज्ञा माँगी। समुद्रविजयजी ने कहा--'वत्स ! अभी तुम सुकोमल कुमार हो । युद्ध के कठोर, जटिल तथा भयानक कार्य के लिए मैं तुम्हें नहीं भेज सकता।' किन्तु कुमार का आग्रह विशेष था, अतएव समुद्रविजयजी को स्वीकार करना पड़ा । उन्होंने विशाल सेना और उत्तम शस्त्रास्त्र दे कर वसुदेव को बिदा किया । सिंहरथ भी तत्पर हो कर युद्ध-भूमि में आ डटा । दोनों पक्षों में भारी युद्ध हुआ और सिंहरथ ने वसुदेव की सेना को हरा दिया। अपनी सेना की पराजय देख कर राजकुमार वसुदेव स्वयं रथारूढ़ हो कर आगे आया। कंस उसके रथ का चालक बना । दोनों पक्षों में विविध शस्त्रास्त्रों से भयानक युद्ध, लम्बे समय तक चलता रहा, किंतु परिणाम तक नहीं पहुँच रहा था। कंस स्वयं निर्णायक प्रहार करने लिए तत्पर बना । उसने एक बड़े अस्त्र का प्रहार कर के सिंह रथ के रथ को नष्ट कर डाला । फिर सिंहरथ खड्ग ले कर कंस का वध करने के लिए झपटा। उस समय वसुदेव ने क्षुरप्र बाण मार कर सिंहरथ की मुष्टि का छेदन कर दिया । छल एवं बल में निपुण कंस ने तत्काल सिंहरथ पर झपट कर उसे पकड़ लिया और बाँध कर वसुदेव के रथ में डाल दिया। अपने राजा को बन्दी बना देख कर सेना भाग गई और युद्ध समाप्त हो गया ! विजयी सेना, सिंहरथ को ले कर लौट गई। विजयी राजकुमार और सेना का भव्य स्वा त के साथ राजधानी में प्रवेश हुआ। राजा समुद्रविजयजी ने एकान्त में राजकुमार वसुदेव से कहा-- x जो पहले तो सत्यवादी था, किन्तु बाद में असत्य बोलने के कारण, देव ने ऋद्ध हो कर उसे मारडाला और वह नरक में उत्पन्न हआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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