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________________ २७४ तीर्थकर चरित्र पुत्रियों ने अपने पिता द्वारा नन्दीसेन को दिया हुआ वचन सुना था। सब से बड़ी पुत्री का लग्न शीघ्र होने वाला था। उसे चिन्ता हुई कि यदि पिता मुझे नन्दीसेन को ब्याह देंगे, तो क्या होगा ?" उसने पिता के पास यह सूचना भेज दी कि-"यदि मेरा विवाह इस कुरूप के साथ करने का प्रयत्न किया, तो मैं आत्मघात कर लूंगी।" नन्दीसेन को इस बात की जानकारी हुई, तो निराश हो कर चिन्ता-मग्न हो गया। मामा ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा;-- 'तू चिन्ता मत कर, मैं तुझे दूसरी पुत्री दूंगा।" यह सुन कर सभी पत्रियों ने नन्दीसेन के प्रति घणा व्यक्त करती हई बडी के समान ही विरोध किया। यह सुन कर नन्दीसेन सर्वथा निराश हो गया, किंतु मामा ने विश्वास दिलाते हुए कहा"ये छोकरिये तुझे नहीं चाहती, तो जाने दे । में दूसरे किसी की लड़की प्राप्त करके तेर। विवाह करूँगा, तू विश्वास रख ।” किन्तु नन्दीसेन को विश्वास नहीं हुआ। उसने सोचा"जब मेरे मामा की सात पुत्रियों में से एक भी मुझे नहीं चाहती, तो दूसरी ऐसी कौन होगी जो मेरे साथ लग्न करने के लिए तत्पर होगी ?" इस प्रकार विचार कर वह संसार से ही उदासीन हो गया। उसकी विरक्ति बढ़ी। वह मामा का घर छोड़ कर रत्नपुर नगर आया। उसकी दृष्टि संभोगरत एक स्त्री-पुरुष के युगल पर पड़ी। वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ मृत्यु की इच्छा से, नगर छोड़ कर उपवन में आया और आत्मघात की चेष्टा करने लगा। उस वन में एक वृक्ष के नीचे सुस्थित नामक महात्मा ध्यानस्थ खडे थे। नन्दीसेन ने मनि को देखा। उसने सोचा--"मरने से पहले महात्मा को वन्दना करलूं।" उसने मुनिराज के चरणों में मस्तक टेक कर वन्दना-नमस्कार किया। मुनिराज ने ज्ञान से नन्दीसेन के मनोभाव जाने और दया कर बोले; “अज्ञानी मनुष्य ! तू अपने मनुष्य-भव को नष्ट करना चाहता है । तेने पूर्वभव में प्रचूर पाप किये, जिससे मनुष्य-भव पा कर भी दुर्भागी एवं अभाव पीड़ित तथा घृणित बना, अब फिर आत्मघात का पाप कर के अपनी आत्मा को विशेष रूप से दण्डित करना चाहता है । यह तेरी कुबुद्धि है। समझ और धर्माचरण से इस मानव-भव को सफल कर। तप और संयम से आत्मा को पवित्र बना कर सभी पाप को धो दे। यह अलभ्य अवसर बार-बार नहीं मिलेगा।" महात्मा के उपदेश ने नन्दीसेन को जाग्रत कर दिया। उसकी मोहनिद्रा दूर हुई। उसने उसी समय प्रव्रज्या ग्रहण की और ज्ञानाभ्यास करने लगा । कुछ काल में वह गीतार्थ हो गया। उसने अभिग्रह किया कि--" मैं साधुओं की वयावृत्य करने में सदैव तत्पर रहूँगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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