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________________ २७० तीर्थंकर चरित्र श्रीसेनजी के पुत्र शंखकुमार की प्रशंसा की । यशोमती के मन में शंखकुमार के लिए प्रीति उत्पन्न हो गई । उसने सखी के द्वारा पिता को सन्देश भेज कर शंखकुमार से लग्न करने की इच्छा व्यक्त की । राजा, पुत्री की इच्छा जान कर प्रसन्न हुआ और अपना मन्त्री, श्रीसेन राजा के पास भेज कर सम्बन्ध की याचना की। इतने में विद्याधर नरेश मणिशेखर ने जितारी राजा के पास राजकुमारी की माँग भेजी। राजा ने कहा- "मेरी कन्या ने शंखकुमार से लग्न करने का निश्चय कर लिया है, अब इसमें परिवर्तन नहीं हो सकता ।" विद्याधर क्रोधित हो गया और यशोमती का अपहरण कर लिया । मैं यशोमती की धात्री । अपहरण के समय में उसके पास थी और उसका हाथ पकड़ कर था में हुए थी । दुष्टं ने उसके साथ मेरा भी हरण किया और यहाँ ला कर बल पूर्वक मुझे पृथक् कर के यहाँ छोड़ गया है । अब वह राक्षस, कुमारी को न जाने कहाँ ले गया और कैसी यातना दे रहा होगा ? में इसी दुःख से रो रही हूँ । वन में मेरा और राजकुमारी का कोई सहायक नहीं है । अब क्या होगा ? " भद्रे ! धं एख । में राजकुमारी की खोज करता हूँ और जहाँ भी होगा, उस दुष्ट से यशोमती को मुक्त कराऊँगा". -- इतना कह कर कुमार उस अटवी में राजकुमारी की खोज करने लगा । सूर्य उदय होने पर राजकुमार एक ऊँचे पर्वत के शिखर पर चढ़ा और चारों और देखने लगा । हठात् उसकी दृष्टि एक खोह पर पड़ी और एक स्त्री और पुरुष दिखाई दिये । शंख तत्काल पर्वत से नीचे उतरा और उसी दिशा में चल दिया । थोड़ी ही देर में वह दोनों के निकट पहुँचा। उसने देखा - मणिशेखर यशोमती को बलात्कार पूर्वक वश में करना चाहता था और यशोमती उसकी भर्त्सना करती हुई कह रही थीं; - "नीच अधम ! मै परस्त्री हूँ | मैंने अपने हृदय से पुरुष श्रेष्ठ शंखकुमार को वरण कर लिया है । अब मैं दूसरे पुरुष की छाया से भी दूर रहना चाहती हूँ । यदि तू सदाचारी है, तो मुझ से दूर रह और अपनी दुर्मति छोड़ कर मेरे साथ अपनी सगी बहिन के समान व्यवहार कर ।" यशोमती बोल ही रही थी कि शंखकुमार वहाँ पहुँच गया। उसे देखते ही मणिशेखर ने कहा; - ''यह तेरा प्रियतम, मृत्यु से आकर्षित हो कर यहाँ आ पहुँचा है । इसे अभी मृत्यु का ग्रास बना देता हूँ । इसके साथ ही तेरी आशा भी मर जायगी । फिर विवश हो कर तुझे मेरे आधीन होना ही पड़ेगा ।" लम्पट, दुराचारी ! वाचालता छोड़ कर इधर आ । में तुझे तेरे दुराचरण का दण्ड देने ही यहाँ आया हूँ । "1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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