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________________ भ० अरिष्टनेमिजी -- पूर्वभव समझ गया । राजकुमार ने अपने एक सामन्त को कुछ सैनिकों के साथ दुर्ग में भेज कर अधिकार करवा लिया और आप स्वयं शेष सेना को ले कर लौट गया, किन्तु थोड़ी दूर जा कर कुमार रुक गया और सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियाँ बना कर उस पर्वत के आसपास चारों ओर वन में छुपा दिया तथा स्वयं पल्लीपति की टोह लेता हुआ निकट ही झाड़ी में छुप गया । पल्लीपति ने घात लगा कर पूरी शक्ति के साथ दुर्ग पर हमला कर दिया । इधर राजकुमार का संकेत पा कर सेना, पल्लीपति की सेना को घेर कर प्रहार करने लगी । दुर्ग के भीतर से सामन्त की सेना और बाहर से राजकुमार की सेना के प्रहार के बीच में समरकेतु और उसके लूटेरे सैनिक फँस गए। अपनी संकटापन्न स्थिति देख कर पल्लीपति समरकेतु, शस्त्र डाल कर राजकुमार की शरण में आया और प्रणिपात करता हुआ कहने लगा; " स्वामिन् ! मेरे ही जाल में मुझे कोई फाँस लेगा ऐसी कल्पना ही में नहीं कर सकता था । आपको भी में अपने जाल में जकड़ कर पराजित करना चाहता था, परन्तु आप मेरे षड्यन्त्र को समझ गए। परिणाम स्वरूप में आपकी शरण में हूँ । आप अनुग्रह करें।" -- Jain Education International राजकुमार ने समरकेतु और उसके साथियों को बन्दी बना कर सेना के नियन्त्रण में दे दिया और उसके पास निकला हुआ लूट का समस्त धन, जिनका था, उन्हें दे दिया और शेष धन दण्ड स्वरूप ले कर बन्दियों सहित सेना के साथ राजधानी की ओर प्रयाण किया । सायंकाल सेना का पड़ाव हुआ । राजकुमार का डेरा एक विशाल वृक्ष के नीचे लग गया । खा-पी कर सभी आराम करने लगे । आधी रात के समय कुमार के कानों में किसी स्त्री के रुदन की ध्वनि आई। कुमार चौंका, सावधान हुआ और खड्ग ले कर ध्वनि की दिशा में आगे बढ़ा। कुछ दूर चलने पर उसने एक अधेड़ वय की स्त्री को रोते हुए देखा । कुमार ने उस स्त्री को सांत्वना देते हुए उसके रोने का कारण और परिचय पूछा । कुमार की सांत्वना से आश्वस्त होकर महिला कहने लगी; " अंगदेश की चम्पानगरी के जितारी राजा की कीर्तिमति रानी से अनेक पुत्रों के यशोमती है । वह इन्द्रानी के समान अनुपम बाद एक पुत्री का जन्म हुआ । उसका नाम सुन्दरी और सद्गुणों की खान है । यौवनवय में चिन्ता हुई। कई राजाओं और राजकुमारों ने किन्तु यशोमती तो एक प्रकार से पुरुषद्वै षिनी आने पर राजा को उसके लिये वर की राजकुमारी के लिये राजा से याचना की बन गई थी। उसने सखी के द्वारा राजा से कह कर सभी की माँगें ठुकरा दी । एकदा यशोमती की सखी ने, हस्तिनापुर नरेश २६६ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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