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तीर्थङ्कर चरित्र
इस जम्बूद्वीय के भरत क्षेत्र में, कुरु नाम का देश है, उसके हस्तिनापुर नगर में श्रीसेन नाम का राजा हुआ। श्रीमती उसकी महारानी थी। एक रात्रि को रानी ने स्वप्न में शंख के समान निर्मल चन्द्रमा को अपने मुंह में प्रवेश करते हुए देखा । स्वप्न-पाठकों ने स्वप्न का फल बतलाते हुए कहा---'शत्रु रूपी अन्धकार का भेदन करने वाले चन्द्र के समान एक पुत्र-रत्न का लाभ होगा।' यह स्वप्न अपराजित देव के गर्भ में आने पर महारानी को आया था। पुत्र-जन्म होने पर महाराजा ने उसका 'शंख' नाम रखा । योग्य वय में विद्याभ्यास प्रारंभ हुआ, किन्तु क्षयोपशम की तीव्रता के कारण संकेत मात्र से पूर्वजन्म की सीखी हुई सभी विद्याएँ स्मरण हो गई और सभी कलाएँ हस्तगत हो गई। विमलबोध मंत्री का जीव भी आरण स्वर्ग से च्यव कर, राजा के गुणनिधि मन्त्रि के पुत्रपने उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'मतिप्रभ' रखा गया। यह राजकुमार शंख का प्रियमित्र और सदैव का साथी बन गया। राजकुमार यौवनवय को प्राप्त हुआ।
राज्य की सीमा पर शशिरा नदी और चन्द्र नाम का विशाल एवं दुर्गम पर्वत था। उस पर्वत के दुर्ग का नायक समरकेतु नाम का पल्लीपति था। उसने राज्य की सीमा में बसने वाले गांवों में ही लूटपाट मचा दी। लोग दुःखी हो कर नरेश की शरण में आये। पल्लीपति का आतंक और जनता का दुःख देख कर नरेश उत्तेजित हो गए। उन्होंने पल्लीपति पर चढ़ाई करने के लिए सेना को कूच करने की आज्ञा दी और स्वयं भी शस्त्र-सज्ज हो प्रयाण करने की तय्यारी करने लगे। जब राजकुमार शंख ने पिता के प्रयाण की बात सुनी, तो पिता की सेवा में उपस्थित हो कर निवेदन किया :---
"पूज्य ! एक गीदड़ जैसे पल्लीपति पर आपका चढ़ाई करना उचित नहीं लगता। उस डाकू का इससे महत्व बढ़ता है। आप मुझे आज्ञा दीजिए । मैं जा कर उसका दमन करूँगा और पकड़ कर श्रीचरणों में उपस्थित करूँगा।"
"पुत्र ! वह बड़ा धूर्त है। धोखा दे कर वार करने में वह प्रवीण है। उसे अधिकार में लेना सरल नहीं है।"
"पूज्य ! उसकी धूर्तता भी उसे नहीं बचा सकेगी। में सावधानीपूर्वक उसको पकडूंगा और उसे बन्दी बना कर सेवा में उपस्थित करूँगा। आप मुझे आज्ञा प्रदान कीजिए।"
राजा की आज्ञा पा कर कुमार ने शस्त्र-सज्ज हो कर प्रयाण किया। सेना सहित राजकुमार को आया जान कर समरकेतु सावधान हो गया। उसने दुर्ग छोड़ कर पर्वत की कन्दराओं का आश्रय लिया। कुमार ने दुर्ग को शून्य देखा, तो वह समरकेतु की चाल
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