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________________ भ० अरिष्टनेमिजी- - पूर्वभव २६७ अपराजित के इन पराक्रमों के समाचार उसके पिता राजा हरिनन्दी को मिले । उसने अपना एक विश्वस्त सेवक, समाचार की सत्यता जानने के लिए जनानन्द नगर में भेजा । कुमार की दृष्टि अपने सेवक पर पड़ते ही उसके पास पहुँचा और उसे गले लगा कर बहुत देर तक बाहुपाश में जकड़े रहा। सेवक से अपने माता-पिता के, पुत्र-वियोग से उत्पन्न दुःख का वर्णन सुन कर कुमार भी उदास हो गया और माता-पिता से मिलने के लिए जाने की इच्छा अपने श्वशुर के सामने व्यक्त की । प्रस्थान की तैयारियाँ होने लगी । इतने में पूर्व-विवाहित पत्नियों के पिता भी अपनी-अपनी पुत्रियों को ले कर वहाँ आ पहुँचे । अपराजित कुमार अपनी सभी पत्नियों और सेना आदि ले कर चल निकला और क्रमशः अपने नगर के निकट आया । राजा हरिनन्दी और रानी अत्यन्त प्रसन्न हुए और महोत्सवपूर्वक उसका नगर प्रवेश कराया । सभी आनन्दपूर्वक समय व्यतीय करने लगे । मनोगति और चपलगति देव भी माहेन्द्र देवलोक से च्यव कर अपराजित के लघु बन्धुपने जन्मे । कालान्तर में हरिनन्दी नरेश ने राज्य का भार युवराज अपराजित को दे कर प्रव्रज्या स्वीकार करली और आराधक बन कर परमपद को प्राप्त हुए । एकबार अपराजित नरेश वनविहार को गये । उद्यान में उन्होंने अनंगदेव नाम के एक स्वरूपवान् और समृद्धिशाली सेठ - पुत्र को देखा । वह अपने मित्रों तथा अनेक रमणियों के साथ वनक्रीड़ा में आसक्त था और एक राजकुमार के समान सुखभोग रहा था। राजा ने सेवकों द्वारा उसका परिचय प्राप्त किया, तो ज्ञात हुआ कि यह युवक उसी के नगर के समुद्रपाल सेठ का पुत्र है । अपने नगर में ऐसे वैभवशाली सेठों का होना जान कर राजा प्रसन्न हुआ । दूसरे ही दिन राजा कहीं बाहर जा रहा था कि उसने देखा -- बहुत से लोग एक अर्थी उठा कर ले जा रहे हैं और उसके पीछे परिवार तथा अनेक स्त्रियाँ रोती, कलपती, छाती और सिर पीटती जा रही है। राजा ने यह करुण दृश्य देख कर पूछा - " कौन मर गया ? यह किस की अर्थी है ?" सेवक ने पता लगा कर कहा-'महाराज ! यह वही कल वाला सेठ का पुत्र है । इसे विशूचिका रोग हो गया था और मर गया ।" इस घटना ने राजा के हृदय पर गम्भीर प्रभाव डाला । उसके मन में संसार के प्रति विरक्ति हो गई। थोड़े ही दिनों में वहाँ वे केवलज्ञानी भगवान् पधारे -- जिनके दर्शन कुमार ने कुंडपुर में किये थे । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर राजा संसार त्यागने को तत्पर हो गया और अपने पुत्र पद्म को राज्यभार दे कर प्रव्रजित हो गया । रानी, भाई, मन्त्री आदि भी दीक्षित हुए। सभी ने धर्म की आराधना की और काल कर के आरण नाम के ग्यारहवें देवलोक में इन्द्र के सामानिक देव हुए । น Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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