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________________ भ० अरिष्टनेमिजी--पूर्वभव २६५ को प्राप्त करने के लिये कलाओं का अभ्यास करने लगे । जितशत्रु नरेश ने स्वयम्वर का आयोजन किया और नगर के बाहर एक विशाल मण्डप बना कर सभी प्रकार से सुसज्जित किया, साथ ही बड़े-बड़े नरेशों और राजकुमारों को आमन्त्रित किया। इस स्वयंवर में राजा हरिनन्दी के सिवाय सभी नरेश और राजकुमार उपस्थित हुए । हरिनन्दी नरेश, अपने सुपुत्र अपराजित कुमार के वियोग-दुःख से दुःखी थे । इसलिये इस आयोजन में नहीं आये । भाग्योदय से अपराजित कुमार भी अपने मित्र के साथ इस आयोजन में सम्मिलित हो गया और अपनी कलाओं का स्मरण करता हुआ राजकन्या के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। उन्होंने गुटिका प्रयोग से अपना और विमलबोध का रूप, अनाकर्षक एवं विकृत बना लिया था । यथा-समय राजकुमारी अपनी सखियों और दासियों के साथ चामर हुलाती हई, लक्ष्मी देवी के समान शोभा को धारण किये हुए, मण्डप में उपस्थित हुई । आत्म-रक्षक और छड़ीदार उसके आसपास और आगे चलते हुए मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। राजकुमारी के साथ उसकी सखी मालती चलती हुई, प्रत्येक नरेश और राजकुमार का परिचय देती जा रही थी। उसने कदम्ब देश के नरेश का परिचय देते हुए कहा “ये कदम्ब देश के नरेश भुवनचन्द्र हैं । ये वीर हैं, प्रख्यात हैं और पूर्व-दिशा के भूषण रूप हैं।" “ये कामदेव के समान रूप सम्पन्न नरेश समरकेतु हैं । प्रकृति के उदार हैं और दक्षिण-दिशा के अधिपति हैं।" “ये उत्तर दिशा के अलंकार स्वरूप और कुबेर के समान ऐश्वर्य सम्पन्न महाराज कुबेर हैं । इनकी कीर्ति दिगान्त-व्यापी है।" "ये सोमप्रभ नरेश हैं। इनका यश सर्वश्रुत है और ये धवलनरेश, शर, भीम आदि बड़े-बड़े नरेश हैं। ये विद्याधर नरेश मणिचूड़ महा पराक्रमी हैं, रत्नचूड़ नरेश, मणिप्रभ, सुमन, सोर और शूर नरेश हैं । ये सभी विद्याधर हैं।" "हे, सखी ! तुम इन सब के रूप, कला, गुण और प्रभाव को देखो और इनकी परीक्षा करो। ये सभी कलाविद हैं।" राजकुमारी ने उन नरेशों को देखा, फिर अपने मधुर स्वर से उन्हें सम्बोधित कर एक तर्कयुक्त प्रश्न उपस्थित किया । उस प्रश्न को सुना तो सब ने, परंतु उत्तर किसी ने नहीं दिया, जैसे सभी मौन धारण किये हों, या सबके कण्ठ अवरुद्ध हो गए हों । वे सभी नतमस्तक हो गए और एक-दूसरे से कहने लगे-" ऐसा प्रश्न तो हमने कभी सुना ही नहीं। इस लड़की ने हम सब को जीत लिया। क्या यह साक्षात् सरस्वती तो नहीं है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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