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तीर्थंकर चरित्र
कहा- - " नरेश का घाव संरोहनी औषधी से भर सकेगा । इस नगर में कोई दो मित्र आये हुए हैं । वे धर्मात्मा, दयालु, परोपकारपरायण और देव के समान प्रभावशाली हैं । उनकी आय का कोई साधन नहीं है, किंतु व्यय बहुत है और अर्थ - सम्पन्न दिखाई देते हैं । मेरा विश्वास है कि उनके पास कोई चमत्कारिक औषधी होगी। आप उनसे अवश्य ही मिलें ।"
मन्त्री, कुमार के पास आये और आदर सहित राजप्रासाद में ले गए। अपराजितकुमार ने राजा को मणि-प्रक्षालित जल पिलाया, और उसी जल से मूलिका घिस कर घाव पर लगाई । राजा का घाव तत्काल भर गया और वह स्वस्थ हो गया । राजा ने कुमार का परिचय पूछा। उसे यह सुन कर आश्चर्य के साथ प्रसन्नता हुई कि 'कुमार उनके मित्र हरिनन्दी का पुत्र है ।' उन्होंने कुमार के गुणों से प्रसन्न हो कर अपनी 'रंभा' नाम की पुत्री का लग्न उसके साथ कर दिया । कुमार का जीवन वहाँ भी सुखपूर्वक व्यतीत होने लगा । कुछ दिन वहाँ रह कर वे दोनों मित्र फिर आगे बढ़े । कुण्डपुर के समीप पहुँचे । वहाँ उद्यान में एक केवलज्ञानी भगवान् के दर्शन हुए। धर्मदेशना के उपरान्त अपराजित ने पूछा:--
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-" भगवत् ! में भव्य हूँ या अभव्य ?" भगवान् ने कहा; -- " तुम भव्य हो और इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में बाईसवें तीर्थंकर बनोगे । यह तुम्हारा मित्र, तुम्हारा गणधर होगा ।"
जनानन्द नगर में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम धारिणी था । रत्नवती का जीव स्वर्ग से च्यव कर रानी की कुक्षि से, कन्या के रूप में उत्पन्न हुआ । उसका नाम 'प्रीतिमति' रखा। अनुक्रम से वह यौवनवय को प्राप्त हुई । रूप, कला और स्त्रियोचित सभी उत्तम गुणों से वह सुशोभित थी । वह ज्ञान-विज्ञान में इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि अच्छे कलावान् और विद्वान पुरुष भी प्रीतिमति की कला, ज्ञान और विज्ञान से प्रभावित हो जाते, किन्तु प्रीतिमति पर किसी भी पुरुष का प्रभाव नहीं पड़ता । वह विवाह के योग्य हो गई, परन्तु नरेश के मन में उसके योग्य कोई वर दिखाई नहीं दिया । नरेश ने सोचा--" यदि प्रीतिमति, अयोग्य वर को दे दी गई, तो उसका जीवन ही निस्सार हो जायगा, कदाचित् वह जीवित भी नहीं रहे। उसके योग्य वर कहाँ से खोजा जाय ?" राजा ने पुत्री को ही पूछवाया । राजकुमारी ने सखी के साथ कहलाया--" में
उसी पुरुष को मान्य करूँगी, जो गुणों और कलाओं में मुझे पराजित कर दे।" राजकुमारी को प्रतिज्ञा की बात चारों ओर फैल गई । बहुत-से राजा, राजकुमारी
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