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भ० अरिष्टनेमिजी-पूर्वभव
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चित्रगति नरेश ने उसके राज्य के विभाग कर के उनका झगड़ा मिटा दिया, किन्तु उनकी कषाय मन्द नहीं हुई और कुछ दिन बाद वे दोनों ही लड़ने लगे । उनके युद्ध का परिणाम दानों की मृत्यु के रूप में आया जानकर, चित्रगति नरेश, उदयभाव की भयानकता का विचार करने लगे । वे संसार से विरक्त हो गए और ज्येष्ठ-पुत्र पुरन्दर का राज्याभिषेक कर स्वयं, रानी और दोनों अनुज बन्धु. आचार्य श्री दमधरजी के पास दीक्षित हुए। उन्होंने चिरकाल तक संयन की आराधना की और पादपोपगमन अनशन कर के माहेन्द्रकल्प में महद्धिक देव हुए । रत्नवती और दोनों बन्धु मुनि भी उसी देवलोक में देव हुए। यह इनका चौथा भव था।
पूर्व विदेह के पद्म नाम के विजय में सिंहपुर नगर था । हरीनन्दी राजा वहाँ के शासक थे । प्रियदर्शना नाम की उनकी पटरानी थी। चित्रगति देव का जीव अपना देवभव पूर्ण कर के महारानी प्रियदर्शना की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'अपराजित' था । क्रमशः वह सभी कलाओं और विद्याओं में निपुण हो कर यौवन-वय को प्राप्त हुआ। वह कामदेव के समान रूप सम्पन्न था। विमलबोध नाम का मन्त्रीपुत्र उसका बालमित्र था।
एकबार वे दोनों मित्र अश्वारूढ़ हो कर वन-क्रीड़ा करने निकले । अश्व तीव्रगति वाले और उलटी प्रकृति के थ । वे भागते हुए उन्हें महावन में ले गए । हताश हो कर राजकुमार और मन्त्रीकुमार ने घोड़ों की लगाम छोड़ दी। वे तत्काल खड़े रह गए। कुमार घोड़े से नीचे उतरे । उन्हें उन अनजान महावन में आ कर भी प्रसन्नता हई । वन की मनोहर शोभा ने उन्हें आनन्दित कर दिया। अब वे माता-पिता के बन्धन से भी मक्त थे। उनमें यथेच्छ विहार की कामना जगी । वे परस्पर वार्तालाप करने लगे । इतने ही में उनके कानों में--"ववाओ, बचाओ रक्षा करो। शरणागत हूँ"-ये शब्द उनके कानों में पड़े। वे सावधान हुए । इतने ही में एक पुरुष, घबड़ाता हुआ उनके पास पहुंचा। वह थर-थर धूज रहा था। राजकुमार ने उसे अभय-वचन दिया और कहा--"तु निर्भय है। तुझे कोई नहीं सता सकता।" मन्त्रीपुत्र ने कहा-"मित्र ! सोच-समझ कर वचन दिया करो । यदि यह अपराधो हुआ, तो क्या होगा ?"
--"यह अपराधी हो, या निरपराध ! शरण आये की रक्षा तो करनी ही पड़ती है। यह मेरा क्षात्रधर्म है।"
वे इस प्रकार बातें कर ही रहे थे कि “पकड़ों, मारो" चिल्लाते हुए कई आरक्षक वहाँ आ पहुंचे। उनके हाथों में खड्ग भाले आदि थे। उन्होंने आते ही कहा
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