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तीर्थकर चरित्र
"यात्रियों ! यह डाकू है। इसने डाका डाल कर लोगों का धन लुटा है। हम इसे मारेंगे । तुम इससे दूर रहो।" ।
"यह मनुष्य मेरी शरण में आया है। मैंने इसकी रक्षा करने का निश्चय किया है । अब तुम लौट जाओ। यह तुम्हें नहीं मिल सकता।"
___सैनिक क्रोधित हुए और मारपीट करने को तत्पर हो गए । खड्ग ले कर प्रहार करने को आये हुए सैनिकों पर कुमार झपटे । कुमार की तत्परता, शौर्य और प्रभाव से अभिभूत हो कर सभी आरक्षक भागे । उन्होंने कोशल नरेश से कुमार के हस्तक्षेप की बात कही । कोशल नरेश ने डाकू के रक्षक को दण्ड देने के लिए एक बड़ी सेना भेजी, किन्तु कुमार के भीषण प्रहार के सामने सेना भी नहीं ठहर सकी । सेना की पराजय से राजा उत्तेजित हो गया और स्वयं अश्वसेना और गजसेना ले कर आ पहुँचा । कुमार ने राजा को दलबल सहित आया देख कर, डाकू को अपने मित्र मन्त्रीपुत्र के रक्षण में छोड़ा और स्वय परिकर बद्ध होकर युद्ध-क्षेत्र में पहुँचा। कुमार का लक्ष्य राजा पर धावा करने का था। उसने छलांग मार कर एक पांव हाथी के दाँत पर जमाया, फिर उसके चालक (महावत) को खिंचकर नीचे गिरा दिया और हाथी के मस्तक पर आरूढ़ हो कर राजा से युद्ध करने लगा । अपराजित राजा के साथ आये एक मन्त्री ने राजकुमार को पहिचान लिया और राजा से युद्ध बन्द करने का निवेदन किया। जब राजा को ज्ञात हुआ कि यह कुमार मेरे मित्र का पुत्र है, तो उसने युद्ध बन्द करके कुमार को छाती से लगाया और युद्धबन्दी की घोषणा कर दी। उन्होंने कुमार से कहा--
"अपराजित ! तू वास्तव में अपराजित ही है । धन्य है तेरे माता-पिता । तू सिंह का पुत्र, सिंह ही है, तभी हस्ती पर धावा करने का साहस कर सका । हे महाभुज ! यहाँ तू अपने ही राज्य में है । यह भी तेरी ही भूमि है । चल अपने घर चलें।"
राजा ने राजकुमार को अपने समीप हाथी पर बिठाया और राजधानी में आये । डाकू को क्षमादान किया गया। दोनों मित्र वहीं रहने लागे । राजकुमार अपराजित को योग्य वर जान कर कोशल ननेश ने अपनी कन्या कनकमाला का विवाह कर दिया। कुछ दिन वहीं रह कर राजकुमार सुखभोग करता रहा । फिर किसी दिन रात्रि के समय दोनों मित्र, गुप्त रूप से वहाँ से चल निकले । चलते-चलते वे वन में बहुत दूर निकल गए। अचानक उनके कानों में ये शब्द पड़े;
"हे वनदेव ! मुझे बचाओ । इस राक्षस से मेरी रक्षा करो।" उपरोक्त शब्दों को सुन कर राजकुमार उसी दिशा में आगे बढ़ा । उसने देखा--
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