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तीर्थकर चरित्र
और सुमित्रमुनि को पहिचान कर क्रोध में भभक उठा । उसने धनुष पर बाण चढ़ा कर ध्यानस्थ मुनिराज की छाती में मारा । मुनिराज इस भयंकरतम उपसर्ग से भी विचलित नहीं हुए और आराधना का सुअवसर जान कर, आलोचनादि कर, ध्यान में मग्न हो गए। वे आयु पूर्ण कर ब्रह्मदेवलोक में इन्द्र के सामानिक देव हुए।
___ मुनि को बाण मार कर पद्म आगे बढ़ा । अन्धकार में चलते हुए उसे एक विषधर ने डस लिया । वह वहीं गिर पड़ा और महान् रौद्रध्यान में मर कर सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ।
मुनिराज सुमित्रजी का घायल हो कर आयुष्य पूरा करने के समाचार सुन कर चित्रगति शोकसंतप्त हो गया। वह शोक-निवारण के लिए सर्वज्ञ भगवान् सुयशजी के दर्शनार्थ निकला। उसके साथ अनेक विद्याधर थे । अनंगसिंह राजा भी अपनी पुत्री रत्नवती के साथ भगवान् को वन्दना करने आया था । कुमार चित्रगति ने भगवान् की वन्दना एवं स्तुति की। सुमित्रमुनि के जीव, ब्रह्मदेवलोकवासी देव ने अवधिज्ञान से अपने उपकारी मित्र को गुरु भगवान् की भक्ति करते हुए देखा, तो अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने वहाँ आ कर कुमार पर पुष्पवर्षा की । विद्याधर लोग चित्रगति की प्रशंसा करने लगे । अनंगसिंह राजा ने राजकुमार को पहिचाना । वहीं सुमित्र देव प्रत्यक्ष हुआ और बोला
“मित्र चित्रगति ! मैं सुमित्र हूँ। तुम्हारी कृपा से ही मैं जिनधर्म प्राप्त कर सका और अब दैविक सुखों का अनुभव कर रहा हूँ।"
__ इस दृश्य को देख कर चक्रवर्ती नरेश शूरसेन आदि विद्याधरगण बहुत प्रसन्न हुए। अनंगसिंह की पुत्री रत्नवती चित्रगति पर मोहित हो गई । अनंगसिंह ने पुत्री का अनुराम देखा। उसने सोचा--भविष्यवाणी और पुत्री की आसक्ति, ये सब योग मिल रहे हैं । अब सम्राट शूरसेनजी के पास सम्बन्ध का सन्देश भेजना चाहिए । स्वस्थान आ कर उसने अपने मन्त्री को भेजा, परिणाम स्वरूप चित्रगति कुमार का विवाह रत्नवती के साथ हो गया । वे सुखभोगपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे।
धनदेव और धनदत्त के जीव भी देवभव का आयु पूर्ण कर चित्रगति के छोटे भाई के रूप में जन्मे । उनका नाम मनोगति और चपलगति था। कालान्तर में शूरसेन नरेन्द्र ने चित्रगुप्त को राज्यभार दे कर प्रव्रज्या स्वीकार की और आराधना करके मोक्ष प्राप्त हुए।
- चित्रगति नरेश कुशलपूर्वक राज्य का संचालन करने लगे। उनके राज्य में मणिचूल नाम का सामन्त था। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र शशि और शूर परस्पर लड़ने लगे।
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