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धर्म देशना-श्रावक के कर्तव्य
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को मृगसमूह का अधिपति सूंघता रहे और मैं अपने ध्यान में मस्त रहूँ-ऐसा उत्तम समय कब आएगा। शत्रौमित्र तणे स्त्रणे स्वर्णेऽश्मनि मणौ मदि । भवे मोक्षे भविष्यामि-निविशेष मतिः कदा ।
--शत्रु और मित्र, तृष और स्त्री, स्वर्ण और पाषाण, मणी और मिट्टी तथा संसार और मुक्ति में मेरी समबुद्धि कब होगी ?
इस प्रकार मुक्ति-महल में चढ़ने की निसरणी रूप गुण-श्रेणी पर चढ़ने के लिए परम आनन्दकारी मनोरथ सदैव करते ही रहना चाहिए। इस प्रकार दिन-रात की चर्या का प्रमाद-रहित हो कर पालन करता हुआ और अपने व्रतों में पूर्ण रूप से स्थिर रहता हुआ श्रावक, गृहस्थावस्था में भी विशुद्ध होता है।
अनेक भव्य-जीव प्रवजित हुए । अनेकों ने श्रावकव्रत धारण किये । कुंभ आदि सतरह गणधर हुए।
प्रभु ने दो हजार चार सौ निनाणु वर्ष और तीन मास तक केवलपर्याय से विचर कर भव्य-जीवों का उद्धार करते रहे । प्रभु के २०००० साधु, ४१.०० साध्वियाँ, ४५० चौदहपूर्वधर, १६०० अवधिज्ञानी, १२६० मनःपर्यायज्ञानी, १६०० केवलज्ञानी, ५००० क्रिय-लब्धिारी, १००. वादविजयी, १७०००० श्रावक और ३४८.०० श्राविकाएँ हुई।
मोक्षकाल निकट आने पर भगवान् समेदशिखर पर्वत पर पधारे और एक हजार मुनियों के साथ अनशन किया। एक मास के अनशन के बाद वैशाख-कृष्णा दसमी को अश्विनी-नक्षत्र के योग में, प्रभु समस्त कर्मों का अंत कर के मोक्ष प्राप्त हुए । देवों और इन्द्रों ने प्रभु का शरीर-संस्कार तथा निर्वाण-महोत्सव किया।
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