________________
२४६
तीर्थंकर चरित्र
में से उत्पन्न होने वाले कामदेव ने समस्त विश्व को बहुत ही बुरी अवस्था में डाल दिया
और दुःखी कर दिया। किन्तु इस दुःख का मूल तो संकल्प ही है। इस प्रकार चिन्तन करना और महात्माओं ने जिसका त्याग किया है, उसका विचार करना और जो बाधक दोष हों उनके प्रतिकार का चिन्तन करना, साथ ही ऐसे दोषों से मुक्त मुनिवरों के प्रति प्रमोद तथा आदर भाव जगाना। सभी जीवों में रही हुई महादुःखदायक ऐसी भव-स्थिति के विषय में विचार कर के, जो स्वभाव से ही सुखदायक है--ऐसे मोक्ष-मार्ग की खोज करना । जिस मार्ग में जिनेश्वर देव, निग्रंथगुरु और दयामय धर्म है, ऐसे श्रावकपन की प्रशंसा तो सभी बुद्धिमान करते हैं ।
फिर जिनधर्म की प्राप्ति स्वरूप श्रावकपन की अनुमोदना करता हुआ विचार करे कि 'मैं उस चक्रवर्तीपन को भी नहीं चाहता, जिसमें जिनधर्म की छाया से वंचित रहना पड़े । मिथ्यात्व युक्त चक्रवर्तीपने से तो सम्यक्त्व युक्त दरिद्रता एवं किंकरता ही अच्छी है। फिर सोचे कि" त्यक्तसंगो जीर्णवासा, मलक्लिन्न कलेवरः । मजन्माधुकरी वृत्ति, भनिचर्या कवाश्रये ।"
-वह शुभ घड़ी कब आयगी, जब मैं संसार के सभी सम्बन्धों का त्याग करके जीर्ण-वस्त्र पहने, मलिन शरीर युक्त हो, माधुकरी वृत्ति अंगीकार करके मुनि-धर्म का आचरण करूँगा। "त्यजन् दुःशील संसर्ग, गुरुपाद-रजःस्पृशन् । कदाऽहं योग-मभ्यस्यन्, प्रभवेयं भवच्छिदे।"
--दुराचारियों की संगति का त्याग करके गुरुदेव के चरणों की रज का स्पर्श करता हुआ और योगाभ्यास करता हुआ मैं कब भव-बन्धनों को नष्ट करने की शक्ति प्राप्त करूँगा। "महानिशायां प्रवृत्त, कायोत्सर्गे पुराबहिः । स्तंभवत्स्कन्ध कषणं, वर्षाः कदा मयि ।"
-मैं आधी रात के समय, नगर के बाहर कयोत्सर्ग में स्थिर हो कर खड़ा रहूँ और अन्धेरी रात में मेरा स्थिर शरीर, लकड़ी के सूखे हुए ढूंठ जैसा लगे, जिसे देख कर वृषभगण अपने कन्धों की खाज खुजालने के लिए, मेरे शरीर का घर्षण करे-ऐसा सुअवसर कब आयगा। वने पदमासनासीनं, क्रोडस्थित मृगार्मकम् । कवाऽऽनास्यन्ति वक्त्रे मां, जरन्तो मृगयूथपाः॥
--में वन में पद्मासन लगा कर बैठू । मेरे खाले में मृगशाधक खेलते रहें। मेरे मुख
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org