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भ० नमिनाथजी
इस जम्बूद्वीप के परिचम-विदेह के भरत नाम के विजय में 'कौशाम्बी' नामक नगरी थी । वहाँ 'सिद्धार्थ' नाम का राजा राज्य करता था। वह गांभीर्य, उदारता, धैर्य और सदाचारादि गुणों से सुशोभित थ । कालान्तर में राजेन्द्र ने राज्य-वैभव तथा संसार का त्याग कर मुनिराज श्री सुदर्शनजी के समीप प्रव्रज्या स्वीकार कर ली और संयम तथा तप का शुद्धता एवं उत्तमतापूर्वक आचरण करते हुए तीर्थंकर नाम-कर्म का बन्ध किया और आयु पूर्ण कर अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए। उनकी देवायु की स्थिति तैतीस सागरोपम प्रमाण थी।
जम्बूद्वीप के इस भरत क्षेत्र में मिथिला नाम की नगरी थी। महाप्रतापी एवं उच्चवंशीय महाराजा विजयसेन वहाँ के अधिपति थे । उनकी महारानी वप्रा थी, रूप एवं शील में श्रेष्ठ । सिद्धार्थ देव अपनी देवायु पूर्ण कर आश्विन-पूर्णिमा की रात्रि में अश्विनीनक्षत्र में महारानी वप्रा की कुक्षि में उत्पन्न हुआ। महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर श्रावण-कृष्णा अष्टमी की रात्रि को अश्विनी-नक्षत्र में, पुत्र का जन्म हुआ। देवों और इन्द्रों ने तीर्थकर-जन्म का उत्सव किया।
__जिस समय तीर्थकर का यह जीव माता के गर्भ में आया, उसके पूर्व से ही मिथिला नगरी, शत्रुओं से घिरी हुई थी। गर्भ के प्रभाब से माता के मन में नगर की स्थिति देखने की इच्छा हुई। वह भवन के ऊपर की छत पर चढ़ कर देखने लगी। उनकी
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