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________________ कार्तिक श्रेष्ठी-शकेन्द्र का जीव हस्तिनापुर में कार्तिक श्रेष्ठी रहता था। वह विपुल ऋद्धि का स्वामी एवं शक्ति शाली था। वहाँ के व्यापारियों का वह प्रमुख था और एक सहस्र आठ व्यापारियों के लिए आधारभूत, चक्षुभूत एवं अनेक प्रकार के कार्यों तथा समस्याओं में सब का मार्गदर्शक था, परामर्श-दाता था। वह समस्त व्यापारियों का अधिपति था। एकदा भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी हस्तिनापुर के सहस्राम्र उद्यान में पधारे । कार्तिक श्रेष्ठी भी वन्दन करने गए । भगवान् का धर्मोपदेश सुन कर वे संसार से विरक्त हो गए । घर आ कर उन्होंने अपने एक सहस्र आठ व्यापारी-मित्रों को बुलाया और कहा; ... "मित्रों ! मैं संसार से विरक्त हो गया हूँ और भगवान् मुनिसुव्रत स्वामी के द्वारा प्रवजित होना चाहता हूँ। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ?" सभी मित्रों ने कहा;-"देवप्रिय ! यदि आप निग्रंथ-प्रव्रज्या ग्रहण करते हैं, तो हमारे लिये संसार में अन्य आधार ही क्या रह जायया ? किसके आकर्षण से हम संसार में टिके रहेंगे ? और संसार तो हमारे लिए भी भय रूप एवं त्यागने योग्य है । अतएव हम भी आपके साथ प्रवजित होंगे और आपका साथ जीवनपर्यन्त बनाये रखेंगे।" यदि तुम सब मेरे साथ ही दीक्षित होना चाहते हो, तो अपने-अपने घर जाओ और अपना गृहभार ज्येष्ठ-पुत्र को सौंप कर, उत्सवपूर्वक मेरे समीप आआ।" कार्तिक श्रेष्ठी ने अपने सगे-सम्बन्धियों और मित्र-ज्ञातिजनों को एक भोज दिया और उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ-पुत्र को अपना सभी दायित्व सौंप कर समारोहपूर्वक घर से निकला । उसके ज्येष्ठ-पुत्र आदि और एक सहस्र आठ विरक्त व्यापारी मित्रों सहित अभिनिष्क्रमण यात्रा चली । जयघोषपूर्वक हस्तिनापुर के मध्य में होते हुए सहस्राम्र वन में आये और भगवान् के छत्रादि अतिशय दृष्टिगोचर होते ही शिविका से नीचे उतरे। फिर भक्तिपूर्वक भगवान् के समीप पहुंचे और भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर के ईशानकोण की ओर एकान्त में गये । उन्होंने आभूषण-अलंकारादि उतारे और भगवान के समीप उपस्थित हो कर वन्दना-नमस्कार कर प्रव्रजित करने की प्रार्थना की। भगवान ने स्वयं ही कार्तिक और उसके साथ के एक सहस्र आठ विरागियों को प्रजित किया और धर्म-शिक्षा दी। ___ कार्तिक अनगार संयम-साधना करते हुए स्थविर महात्मा के समीप चौदह पूर्व का अध्ययन किया और अनेक प्रकार की तपस्या करते हुए बारह वर्ष पर्यन्त संयम पाला। एक मास का संथारा युक्त अनशन के साथ आयु पूर्ण कर के प्रथम स्वर्ग के असंख्य देव-देवियों और बत्तीस लाख देव-विमानों के स्वामी इन्द्रपने उत्पन्न हुए। उनकी आय स्थिति दो मागरोपम प्रमाण की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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