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राम का मोह भंग, प्रव्रज्या और निर्वाण
कर के पाप का उपार्जन कर नरक में उत्पन्न हुए । अब यहाँ भी लड़ाई-झगड़ा कर वैर बढ़ा रहे हो। तुम्हारी यह पापवृत्ति तुम्हें भवोभव दुःखी करती रहेगी। अब भी समझो और वैरभाव छोड़ कर शान्ति धारण करोगे, तो भविष्य में सुखी बनोगे । श्री रामभद्रजी ने धर्म का आचरण किया, तो वे वीतराग सर्वज्ञ - सर्वदर्शी भगवन्त हो गए। में सीता का जीव हूँ। मैंने धर्म की आराधना की, तो अच्युत स्वर्ग का इन्द्रपद पाया । मैने सर्वज्ञ भगवान् से तुम्हारा भविष्य पूछा था । उन्होने तुम्हारा भविष्य सुन्दर बताया है । अब तुम पाप भावना छोड़ कर धर्मप्रिय बनो और आत्मा को पाप से बचाओ ।" सीतेन्द्र के उपदेश से उनका क्रोध शान्त हुआ । उन्होंने कहा - "कृपानिधि ! आपने हमारा अज्ञान दूर कर हम पर महान् उपकार किया। आपके उपदेश से हम वैरभाव छोड़ते हैं । अब हम आपस में नहीं लड़ेंगे, किंतु हमारी क्षेत्रवेदना कौन मिटाएगा ?” सीतेन्द्र ने करुणा ला कर उन्हें सुखी करने के लिए स्वर्ग में ले जाना चाहा और हाथ में उठाया, किंतु उनका शरीर पारे के समान बिखर गया। इससे उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ, पुनः उठाने पर फिर वही दशा हुई। अंत में उन्होंने कहा--" देवेन्द्र ! आपकी हम पर पूर्ण कृपा है, किंतु हमें हमारा पाप यहीं रह कर भुगतना पड़ेगा । आप स्वस्थान पधारें ।” सीतेन्द्र ने उन्हें पुनः सद्बोध दिया और वहाँ से चल कर देवकुरु में आ कर भामण्डल के जीव युगलिक को देखा । उन्हें भी सद्बोध दे कर अपने स्वर्ग में चले गए ।
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भगवान् रामषिजी पच्चीस वर्ष तक केबलपर्याय से विचरे और कुल आयु पन्द्रह हजार वर्ष का पूर्ण कर शाश्वत सुख के स्वामी बने ।
॥ इति राम चरित्र ॥
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