SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३. तीर्थकर चरित्र उस दान के प्रभाव से वे मरणोपरान्त उत्तरकुरू में युगलिकपने उत्पन्न हुए । युगलिक भव पूर्ण करके सौधर्म-स्वर्ग में देव हुए । स्वर्ग से च्यव कर फिर काकन्दी नगरी में राजपुत्र हुए । राज्य-वैभव का त्याग कर वे संयमी बने और दीर्घकाल तक संयम का पालन कर ग्रेवेयक देव हुए । वहाँ से च्यव कर लवण और अंकुशपने उत्पन्न हुए । उनके पूर्वभव की माता ने भव-भ्रमण कर के सिद्धार्थ हो कर दोनों बन्धुओं का अध्यापन कार्य किया था । वीतराग-सर्वज्ञ महामुनि श्री जयभूषणजी महाराज ने इस प्रकार पूर्वभवों का वर्णन किया । जीव ने भवचक्र में कितने दुष्कर्म किये और उनका कटफल भोगा, इसका विवरण सुन कर बहुत-से लोग संसार से विरक्त हुए । सेनापति कृतांत तो उसी समय प्रवजित हुए । राम-लक्ष्मण आदि महर्षि को वन्दना करके महासती सीता के पास आये । सीता को देख कर राम के मन में चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह कोमलांगी सीता संयम के भार को कैसे वहन कर सकेगी ? पुष्प के समान अत्यंत सुकुमार इसका शरीर, शीत और ताप के कष्ट किस प्रकार सहन करेगा? फिर उनके विचार पलटे । नहीं, यह महासती रावण जैसे महाबली के सामने भी अडिग रही है । यह संयम-भार का वहन करने में समर्थ होगी। इस प्रकार का विचार करके रामभद्र जी ने महासती को वन्दना की। श्री लक्ष्मण आदि ने भी श्रद्धापूर्वक वन्दना की और स्वस्थान आये । सीताजी, संयम और तप की आराधना करके मासिक संलेषणा पूर्वक आयु पूर्ण कर अच्युतेन्द्र हुए । उनकी स्थिति २२ सागरोपम हुई । कृतांतवदन मुनि भी संयम पाल कर ब्रह्मदेवलोक में देव हुए। राम-लक्ष्मण के पुत्रों में विग्रह वैताब्यगिरि पर कांचनपुर नगर के कनकरथ नरेश के मंदाकिनी और चन्द्रमुखी नाम की दो कुमारियां थीं। उनके स्वयंवर में अन्य नरेशों और राजकुमारों के अतिरिक्त राम-लक्ष्मण को भी राजकुमारों सहित आमन्त्रण दिया था। वे सभी आये । राजकुमारी मंदाकिनी ने राजकुमार अनंगलवण के गले में और चन्द्रमुखी ने मदनांकुश के गले में, स्वेच्छा से वरमाला पहिना कर वरण किया। यह देख कर लक्ष्मण के श्रीधर आदि २५० कुमारों में उत्तेजना उत्पन्न हुई । वे युद्ध के लिए तत्पर हो गए । अपने भाईयों को अपने विरुद्ध युद्ध में तत्पर देख कर लवण और अंकुश क्षुब्ध हो गए। उन्होंने अपने भाइयों के विरुद्ध शस्त्र उठाना उचित नहीं समझा। अपने पिता और काका का भ्रातृ-स्नेह उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy