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________________ २२८ तीर्थकर चरित्र वाहन का श्रीचन्द्र नाम का पुत्र हुआ। वह राज्य-वैभव का त्याग कर समाधिगुप्त मुनि के पास प्रवजित हुआ और संयम पाल कर पांचवें देवलोक में इन्द्र हुआ । वहाँ से च्यव कर ये रामभद्र नाम के आठवें बलदेव हुए। वह श्रीकान्त सेठ का जीव (जो गुणवती के साथ गुप्तरूप से लग्न करना चाहता था) भवभ्रमण करता हुआ मृणालकन्द नगर में, शंभु राजा की हेमवती रानी की कुक्षि से वज्रकंठ नामक पुत्र हुआ और वसुदत्त भी जन्म-मरण करता हुआ उसी राजा के पुरोहित का श्रीभूति नाम का पुत्र हुआ और गुणवती भी भवभ्रमण करती हुई श्रीभूति की पत्नी सरस्वती की कुक्षि से कन्या हुई। उसका नाम वेगवती था । यौवनवय के साथ उसमें चञ्चलता भी बढ़ गई । वह जैनमुनियों पर द्वेष रखती थी। उसने सुदर्शन नाम के प्रतिमाधारी मुनि को ध्यानमग्न देखा और द्वेषवश लोगों में प्रचारित कर दिया कि"ये साधु दुराचारी हैं। मैंने इन्हें एक स्त्री के साथ दुराचार करते देखा । ऐसे व्यभिचारी को वन्दना नहीं करनी चाहिये ।” उसकी बात सुन कर लोग भ्रमित हो गए और मुनि को कलंकित जान कर उपद्रव करने लगे। निर्दोष एवं पवित्र मुनिराज के हृदय को इस मिथ्या कलंक से मानसिक क्लेश हुआ। उन्होंने निश्चय कर लिया कि"जबतक मेरा यह कलंक नहीं मिटेगा, मैं कायुत्सर्ग में ही रहँगा।" मुनिराज की अडिगता एवं आत्मबल से शासन-सेवक देव आकर्षित हुआ। उसने वेगवती का मुख विकृत कर दिया-व्याधिमय एवं कुरूप । लोगों ने जब यह जाना तो वेगवती के पाप की निन्दा करने लगे। उसके पिता ने भी उसका तिरस्कार किया । अपने पाप का तत्काल भयंकर परिणाम देख कर वेगवती मुनिराज के निकट आई और समस्त जन-समूह के समक्ष पश्चात्ताप करती हुई बोली;-- "हे स्वामी ! आप सर्वथा निर्दोष हैं। मैने द्वेषवश आप पर मिथ्या दोषारोपण किया । हे क्षमा के सागर ! मेरा अपराध क्षमा करे।" मुनिराज का कलंक दूर हुआ। वेगवती पुनः स्वस्थ हुई । उसकी सुन्दरता विशेष बढ़ गई। वह श्राविका बन कर धर्म का पालन करने में दत्तचित्त हुई। जनता ने भी मुनिराज से क्षमा याचना की । वेगवती का रूप देख कर राजा शंभु उस पर मोहित हुआ। उसने वेगवती के साथ लग्न करने के लिए उसके पिता श्रीभूति से याचना की। श्रीभूति ने कहा-"मेरी पुत्री मिथ्यादृष्टि को नहीं दी जा सकती।" यह सुन कर राजा क्रोधित हुआ । उसने श्रीभूति को मार डाला और वेगवती को बलपूर्वक ग्रहण कर भोग किया । वेगवती अबला थी। उसने राजा को शाप दिया--"भवान्तर में मैं तेरी मृत्यु का कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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