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तीर्थंकर चरित्र
रही और उचित सहायता प्राप्त कर सकी । यह तुम्हारा खुद का प्रभाव था । वह अपनेआपमें एक दिव्य था । में अपने कुकृत्य के लिए क्षमा चाहता हूँ । अब तुम चलो। में तुम्हें सम्मानपूर्वक ले चलता हूँ । तुम्हारा सम्मान पहले से भी अत्यधिक होगा ।" " महानुभाव ! यह मेरे अशुभ कर्मों का उदय था । इसमें जनता और आपका कोई दोष नहीं । मैंने अपने पूर्वभव के दुष्कर्मों का फल पाया है । अब में इन संचित कर्मों की जड़ ही काट देना चाहती हूँ और इसी समय संसार का त्याग कर आत्म-साधना के लिए प्रव्रज्या ग्रहण करती हूँ," - इस प्रकार कह कर सीता सती ने अपने हाथों से केशों का लोच किया और उन केशों को राम को अर्पण किया ।
प्रिया - वियोग से रामभद्रजी मूर्च्छित
राम के हृदय को प्रिया के वियोग से गंभीर आघात लगा । वे मूच्छित हो गए। सीताजी तत्काल वहां से चल कर, केवलज्ञानी भगवान् जयभूषणजी के निकट गई । भगवान् ने उन्हें विधिवत् प्रत्रजित किया और उन्हें महासती आर्या सुप्रभाजी की नेश्राय में रखा । महासती सीताजी संयम साधना में संलग्न हो गई । मूच्छित रामभद्रजी पर चन्दन के मूर्च्छा दूर हुई। उन्होंने पूछा-
शीतल जल का सिंचन किया गया। उनकी
"कहाँ है वह उदारहृदया पवित्र हृदयेश्वरी ? कहाँ गई वह ? राजाओं ! सामन्तों ! देखते क्या हो ? जाओ, भागो, वह जहाँ हो वहां से ले आओ । वह मुझे त्याग कर चली गई । मैं उस लुंचित केशा को भी स्वीकार करूँगा । तुम जाते क्यों नहीं ? क्या मरना चाहते हो मेरे हाथ से ? लक्ष्मण ! मेरा धनुष-बाण लाओ । मैं अत्यंत दुःखी हूँ और ये सब खड़ेखड़े मेरा मुँह देख रहे हैं ?"
"पूज्य ! आप यह क्या कर रहे हैं " -- लक्ष्मणजी हाथ जोड़ कर कहने लगे" मैं और ये सभी राजागण आपके सेवक हैं । इनका कोई दोष नहीं । जिस प्रकार कुल को निष्कलंक रखने के लिए आपने महादेवी का त्याग किया था, उसी प्रकार आत्मविमुक्ति के लिए महादेवी ने हम सब का त्याग कर दिया है। जिस दिन आपने उनका त्याग किया, उसी दिन से उन पर से आपका अधिकार भी समाप्त हो गया । वे स्वतन्त्र थी ही । उन्होंने अपना मोह-ममत्व त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। अपनी नगरी के बाहर महामुनि
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