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________________ सतीत्व-परीक्षा और प्रव्रज्या २२३ मुझे तत्काल जला कर भस्म कर दे, और मैने अपने शील की पवित्रता सुरक्षित रखी हो, तो यह महाज्वाला शांत हो कर जलकुण्ड बन जाय।" इस प्रकार कह कर नमस्कार महामन्त्र का उच्चारण करती हुई सीता अग्निकुण्ड में कूद पड़ी। उसके कूदते ही तत्काल अग्निकुण्ड, जलकुण्ड बन गया। वह कुण्ड शीतल जल से पूर्ण भरा हुआ था। सीता के सतीत्व से संतुष्ठ हुए देव के प्रभाव से सीतादेवी, लक्ष्मीदेवी के समान एक विशाल कमल-पुष्प पर रखे हुए सिंहासन पर बैठ कर हिलोरे ले रही थी। जनता जय-जयकार करने लगी। विजय एवं हर्ष के नादों और वादिन्त्रों से आकाश-मण्डल गुंजने लगा । सारा वातावरण हर्षोत्फुल्ल हो गया । अचानक जलकुण्ड से पानी उछल कर बाहर निकलने लगा। विद्याधर-गण जलप्रवाह बढ़ता देख कर, आकाश में उड़ गए, किंतु भूचर मनुष्य कहाँ जाय ? उन्होंने यह सती-प्रकोप समझा और विनयपूर्वक वन्दन करके प्रार्थना करने लगे;--"हे महासती ! हमारी रक्षा करो। हम आपकी शरण में हैं।" सीता ने उसी समय अपने दोनों हाथों से पानी को दबाया । पानी उसी समय कुण्ड प्रमाण रह गया । कुण्ड अनेक प्रकार के कमलपुष्पों और उस पर गुजारव करते हुए भ्रमरों से सुशोभित होने लगा। वह खड्डे जैसा जलाशय, एक सुरम्य सुनिर्मित कलापूर्ण एवं मनोहर कुण्ड बन गया था। उसमें चारों ओर मणिमय सोपान थे। देवगण, सीता पर आकाश से पुष्प. वृष्टि कर रहे थे और जय-जयकार कर रहे थे । नारदजी हर्ष से नाचते हुए गान करने लगे। ___ अपनी माता का उत्कृष्ट प्रभाव देख कर राजकुमार लवण और अंकुश घहुत हर्षित हुए और तैरते हुए उनके पास पहुंचे। माता ने पुत्रों का प्रेम से मस्तक चूमा और अपने दोनों ओर बिठाया। उसी समय लक्ष्मण, शत्रुघ्न, भामण्डल, विभीषण और सुग्रीव आदि वीरों ने सीता के निकट आ कर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। श्री रामभद्रजी भी सीता के निकट आये और पश्चात्ताप तथा लज्जा से नतमस्तक हो कर बोले ;-- "हे महादेवी ! लोग तो स्वभाव से ही दोषग्राही होते हैं और असत्य को शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे लोगों के दोषपूर्ण विचारों और दोषारोपण से प्रभावित हो कर मैने तुम्हारा त्याग किया था और तुम्हें ऐसे भयानक वन में अकेली छोड़ दिया था, जहां क्रूरतम भयंकर प्राणो रहते थे । मैं निन्दा को सहन नहीं कर सका और आवेश में आ कर तुम्हें--गर्भावस्था में ही--मृत्यु के साक्षात् आवास में पहुँचा दिया । वहाँ तुम जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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