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लवणांकुश का राम-लक्ष्मण से युद्ध
वज्रजंघ नरेश से निवेदन किया;
" हे पूज्य मातुल ! आपने हमें अयोध्या जाने की आज्ञा तो पहले ही दे दी, अब उसे पूरी करने की तैयारी कीजिए और लम्पाक आदि के राजाओं को भी हमारे साथ चलने और सेना को विजय यात्रा के लिए प्रस्थान करने का आदेश दीजिए। हमें अपनी माता का अपमान करने वाले और उन्हें अन्यायपूर्वक वनवास का दंड देने वाले महापुरुष का पराक्रम देखना है ।"
पुत्र की बात ने सीता को भयभीत कर दिया। उन्होंने रुंदन करते हुए कहा-“पुत्रों ! तुम ऐसा विचार भी मत करो। तुम्हारे पिता और काका, देवों के लिए भी 'दुर्जय हैं। जिन्होंने राक्षसपति महाबली रावण को भी मार डाला है । तुम युद्ध करने की बात ही छोड़ दो । हाँ, यदि तुम्हें उनके दर्शन एवं वन्दन करना हो, तो नम्र बन कर विनयपूर्वक जाओ । पूज्यजनों के समीप नम्र बन कर ही जाना चाहिए और विनयपूर्वक व्यवहार करना चाहिए ।"
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--'" माता ! आपका अन्याय एवं निर्दयतापूर्वक त्याग करने वाले पिता, हमारे लिए शत्रु स्थानीय बन चुके हैं। हम अन्याय के चलते उनके आगे नतमस्तक कैसे हो 1 सकते हैं ? क्या हम अपने परिचय में उन्हें यह कहें कि --
" हम तुम्हारी उस त्यक्ता पत्नी के पुत्र हैं -- जिन्हें कलंकिनी बना कर आपने वनवास का दण्ड दिया था ।" हमारा इस प्रकार पहुँचना तो उनके लिए भी लज्जाजनक होगा । हमारा युद्ध का आव्हान ही उचित मार्ग है । उन प्रतिष्ठित महापुरुषों को भी यहा मार्ग आनन्द दायक होगा । हमारे कुल के लिए ऐसा मिलन ही यशकारी हो सकता है । इस प्रकार कह कर वे चल दिये। सीताजी रुदन करती रही । उनका हृदय कई प्रकार की आशंकाओं से भरा हुआ था ।
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दोनों कुमारों ने उत्साहपूर्वक विजययात्रा प्रारंभ की। उनकी सेना के आगे दसदस हजार मनुष्य कुदाले और कुठार ले कर, मार्ग समतल बनाते जाते थे । वे क्रमशः चलते और अपने विजयघोष दिशाओं को गुञ्जित करते हुए अयोध्या के निकट पहुँच गए । अपने राज्य पर शत्रुओं की विशाल सेना की चढ़ाई के समाचारों से राम-लक्ष्मण आश्चर्यान्वित हुए। लक्ष्मणजी हँसते हुए बोले -- " ऐसा कौन दुर्भागी है जो रामभद्रजी के कोपातल में भस्म होने के लिए पतगा बन कर आ पहुँचा। उसकी मृत्यु ही उसे यहाँ खिच लाई है ।" वे भी सुग्रीवादि राजाओं और सेना सहित युद्धभूमि में आ डटे । सीता के वनवास और पुत्र जन्म आदि बातें नारदजी से सुन कर भामण्डल नरेश
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