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________________ २१४ तीर्थकर चरित्र इनकी आकृति ही इनके कुल की भव्यता बतला रही है । ऐसा प्रसिद्ध एवं उत्तम कुल आज संसार में दूसरा कौनसा होगा ?" नारदजी की बात से वज्रजंघ तो ठीक, परंतु पृथु नरेश अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्हें अपने जामाता का उच्चतम कुल जान कर बहुत ही प्रसन्नता हुई। नारदजी की बात सुन कर अंकुश बोला--" ऋषिवर ! लोगों की खोटी निन्दा से प्रभावित हो कर, पिताजी ने माता का त्याग किया, यह अच्छा नहीं हुआ। वे समझदारी से काम लेते, तो अन्य प्रकार से भी लोगों का भ्रम दूर किया जा सकता था। पिताजी जैसे विद्वान् और न्यायप्रिय का यह अन्याय खटकने योग्य है।" --"यहाँ से अयोध्या कितनी दूर है"--लवण ने पूछा। "यहाँ से एक सौ साठ योजन दूर है"--नारदजी ने कहा । --"पूज्य ! हम अयोध्या जा कर अपने पिताश्री आदि के दर्शन करना चाहते हैं"--लवण कुमार ने वज्रबंध नरेश से आज्ञा मांगी। वज्रजंघ ने उचित अवसर जान कर स्वीकृति दी। तत्काल शुभ मुहूर्त में राजा पृथु ने उत्सवपूर्वक अपनी पुत्री कनकमाला के लग्न अंकुश कुमार के साथ कर दिये । लवण और अकुल तथा वज्रजघ नरेश ने प्रस्थान किया। पृथु नरेश भी सेना सहित साथ हो गए। मार्ग में पड़ने वाले राज्यों को जीतते और अपने आधीन बनाते हुए वे आगे बढ़ते रहे और लोकपुर नगर के निकट पहुँचे । कुबेरकान्त नरेश वहां के अधिपति थे। वे धैर्य, शौर्य और पराक्रम में प्रख्यात थे। उनमें अपनी शक्ति का गौरव भी था। किन्तु इस विजयिनी सेना के सामने वे भी परास्त हो गए । इसी प्रकार लम्पाक देश के राजा एककर्ण को और विजयस्थली में भ्रातृशत को भी जीत लिया । वहाँ से गंगानदी पार कर के कैलाश पर्वत के उत्तर की ओर चले। उन्होंने नन्दन नरेश के राज्य पर भी अपनी विजय-पताका फहराई । वहाँ से आगे बढ़ते हुए रुस, कुत्तल, कालम्बु, नन्दीनन्दन, सिंहल, शलभ, अनल, शूल, भीम और भूतरवादि देशों के राजाओं पर विजय प्राप्त करते हुए, वे सिन्धु नदी उतरे और अनेक आर्य और अनार्य राजाओं पर विजय प्राप्त करते और सभी को साथ लेते हुए वे पुण्डरीकपुर आये । लोग वज्रजंघ नरेश के भाग्य की सराहना करते हुए कहते-“हमारे महाराज कितने भाग्यशाली हैं कि इन्हें ऐसे महाबली एवं प्रबल पराक्रमी भानेज प्राप्त हुए।" दोनों कुमारों ने माता सीतादेवी के चरणों में प्रणाम किया। सीताजी ने प्रसन्न हृदय से हर्षाश्रु युक्त पुत्रों के मस्तक का चुम्बन किया और "तुम भी अपने पिता और काका जैसे बनों "--आशीर्वचन कहे । इसके बाद दोनों कुमारों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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