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तीर्थकर चरित्र
सीता की विपत्ति सुन कर नरेश ने कहा;
___“सीता ! तुम मेरी धर्म-बहिन हो । मुझे अपने भाई भामण्डल के समान समझ कर मेरे यहाँ चलो । स्त्रियों के लिए पतिगृह के सिवाय दूसरा स्थान भ्रातृगृह है । रामभद्रजी ने केवल लोकापवाद से बचने के लिए ही तुम्हारा त्याग किया है । वे विवश थे । मैं मानता हूँ कि वे अब पश्चात्ताप की आग में जल रहे होंगे। थोड़े ही दिनों में वे तुम्हारी खोज करेंगे और तुम्हें अपनावेंगे। अभी तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारा वन में रहना उचित नहीं है।"
सीता को वज्रजंघ नरेश पर विश्वास हुआ । वज्रजंघ ने सीता के लिए शिविका मँगवाई और सीता पुण्डरीकपुर के राजभवन में पहुँच गई । वह भवन के एक कक्ष में रह कर धर्मसाधना करने लगी।
रामभद्रजी की विरह-वेदना और सीता की खोज
सीता को वन में छोड़ कर सेनापति अयोध्या आया और सीता का सन्देश सुनाने हुए कहा
___"मैं सिंहनिनाद नामक वन में सीता को छोड़ कर आया हूँ। जब मैंने उन्हें आपकी निर्वासन-आज्ञा सुनाई, तो वह मूच्छित हो कर भूमि पर गिर पड़ी । बहुत देर बाद उन्हें चेतना आई, किन्तु अपनी दुरवस्था का भान होते ही वे बारबार मूच्छित होने लगी। कुछ सावचेती आने पर, भरे हुए हृदय और रूंधे हुए कण्ठ से उन्होंने आपके लिए एक सन्देश दिया है। उन्होंने कहा ;--
"नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और स्मृति में कहीं भी ऐसा नियम है कि एक पक्ष के किये हुए दोषारोपण से दूसरे पक्ष को पूछे बिना और उसकी बात सुने बिना ही दण्ड दिया जाय ? यदि न्यायशास्त्र और धर्म-शास्त्र में नहीं, तो किसी आर्यदेश के राज्य में ऐसा आचार है ?"
“मैं मानती हूँ कि आप सदैव सोच-समझ कर ही कार्य करने वाले हैं, फिर मेरे लिए ऐसा क्यों किया गया ? मैं सोचती हूँ---यह सब अकार्य आपका नहीं, मेरे भाग्य का है ? मेरे पापोदय ने ही मुझे वनवास दिलाया--आपके हाथ से । आप सदैव निर्दोष रहे और रहेंगे । फिर भी मेरा, निवेदन है कि जिस प्रकार आपको मेरी निर्दोषता का
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