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सीता का पति को सन्देश
सेनापति के वचन सुनते ही सीता मूच्छित हो कर गिर पड़ी । वन की शीतल वायु से मूर्छा हटने पर सीता सावधान हुई । किन्तु अपनी दशा का विचार होते ही पुनः पुनः मूच्छित होने लगी । अन्त में पूर्ण सावचेत हो कर सीता ने कहा;--
"भद्र ! मेरे दुष्कर्मों का उदय है । तुम जाओ और स्वामी से मेरा यह सन्देश निवेदन करना--
"यदि आपको लोक-निन्दा का भय था तो मुझे वहीं कहते । मैं अपनी कठोरतम परीक्षा देती। आपको दिव्य आदि से मेरी परीक्षा करके लोकापवाद मिटाना था। क्या आपने यह कार्य अपने विवेक तथा कुल के योग्य किया है ?"
__ "हे स्वामिन् ! जिस प्रकार लोकप्रवाद के वश हो कर आपने मुझे त्याग दी, उस प्रकार किसी अनार्य एवं मिथ्यादृष्टि के वचनों में आ कर अपने धर्म को नहीं छोड़ दें।"
इतना कहने के साथ ही सीता पुनः मूच्छित हो गई। फिर सावधान हुई । राम के दुःख का विचार आने पर वह बोली;--
---" हाय, मेरे बिना स्वामी कसे रहेंगे ? उनका हृदय कितना दु:खी होगा ? हा, वे मेरा विरह कैसे सहन कर सकेंगे? हे वत्स ! तुम जाओ। स्वामी को मेरी ओर से कल्याण कामना और लक्ष्मण को आशिष कहना । जाओ तुम्हारा कल्याण हो।"
सेनापति बड़े दुखित हृदय से, सीता को प्रणाम करके लौट गया।
सीता वज्रजंघ नरेश के भवन में
उस भयानक वन में अकेली भयभीत सीता, मूच्छित दशा में कुछ समय पड़ी रही। शीतल पवन एवं समय के बहाव ने मूर्छा दूर की । वह उठी और विक्षिप्त-सी इधर-उधर भटकने लगी। वह रोती-बिलखती गिरती-पड़ती निरुद्देश चलती रही । विचारों के वेग में वह अपने दुर्भाग्य को कोसने लगी--"हा, दुरात्मन् ! तूने पूर्व-भव में अत्यन्त अधर्म कोटि के पापकर्म किये हैं । उन्हीं दुष्कर्मों का यह फल है । मेरे पतिदेव तो पवित्र हैं । उनका स्नेह भी मुझ पर पूरा है। मेरे विरह में वे राज्यप्रसाद तथा सभी प्रकार की भोग-सामग्री के होते हुए भी दुःख में तड़पते होंगे। मुझ हतभागिनी के दुष्कर्म के उदय ने उन्हें भी दुःखी किया । मेरा जीवन रहे या जाय, इसकी मुझे चिन्ता नहीं। अपने किये हुए पापकर्मों का
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