________________
सीता को वनवास
२०७
वदन से कहा;--
___ "तुम वन-विहार के छल से सीता को रथ में बिठा कर ले जाओ। वह चली आएगी। उसे गर्भ के प्रभाव से वन-विहार की इच्छा भी है फिर वन में ले जा कर छोड़ देना और कहना कि राम ने तुम्हारा त्याग कर के वन में छोड़ने की आज्ञा दी है। में उस आज्ञा का पालन कर रहा हूँ।" - सेनापति ने दुखित मन से रथ ले कर, सीता के भवन में आ कर निवेदन किया । सीताजी प्रसन्नतापूर्वक रथ में बैठ कर चल दी। प्रस्थान-वेला में कई प्रकार के अपशकुन हुए, किन्तु सीता ने धैर्य धारण किया । गंगा पार कर सिंहनिनाद नामक वन के मध्य में रथ रुका । सेनापति को साहस नहीं हुआ कि वह सीता को राम की भयानक आज्ञा सुनावे । उसकी छाती भर आई। आंखों से आंसू झरने लगे । हिचकियाँ बन्ध गई। रथ को रुका देख कर सीतादेवी ने सेनापति की ओर देखा । उसे शोक-संतप्त एवं रुदन करता हुआ देख कर पूछा;--
"क्यों सेनापति ! रुके क्यों ? तुम्हारी आँखों में आँसू क्यों झर रहे हैं ? बोलों, क्या बात है ?"
"माता ! वह भीषण बात मैं आपको कैसे सुनाऊँ ? आज मुझ मेरा सेवकपन दुःख-दायक हो रहा है । मुझे आज वह पापकृत्य करना पड़ रहा है, जिसके लिए मेरा हृदय रो रहा है । मैं कैसे कहूँ ?"
'भाई ! शीघ्र बोलो, क्या बात है ? कर्तव्य-पालन में शोक क्यों कर रहे हो ?"
"पवित्र माता ! आप लंका में रावण के यहाँ रही, उस प्रसंग को निमित्त बना कर, लोगों में आपकी पवित्रता पर कलंक लगाया गया । लोकापवाद के भय से स्वामी ने आपको वनवास दिया है। छोटे स्वामी लक्ष्मणजी ने बहुत विरोध किया, अनुनय-विनय किया, किन्तु अटल आज्ञा के आगे उनकी नहीं चली । वे रोते हुए चले गये और मुझे विवश हो कर आपको लाना पड़ा । महादेवी ! मैं महापापी हूँ, जो आपको इस भयंकर जन्तुओं से भरे हुए वन में छोड़ रहा हूँ । अब धर्म के सिवाय दूसरा कोई आपका रक्षक नहीं है।"
* चरित्रकार सम्मेदशिखर की यात्रा का उल्लेख करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org