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तीर्थंकर चरित्र
"भाई ! जरा शांति से विचार कर । नगर के महाधिकारियों ने भी मुझे लोकप्रवाद सुनाया। मैं स्वयं भी नगर में घूम कर सुन कर आया और ये गुप्तचर भी कह रहे हैं । मैं जानता हूँ कि लोक प्रवाद पलटते देर नहीं करता। मैं सीता का त्याग कर दूँ, तो लोकधारा पलट कर दूसरी बातें करने लगेगी । किन्तु इस कलंक को मिटाने के लिए हमें उचित प्रयत्न तो करना ही होगा - रामभद्रजी ने कहा ।
“आर्य ! लोगों की झूठी बातों में आ कर पूज्या महादेवी का त्याग करने का विचार ही मन में नहीं लावें । लोगों का साँच-झूठ से विशेष सम्बन्ध नहीं होता। लोग प्रायः परनिन्दा - रसिक होते हैं। लोगों के मुँह को कौन बंद कर सकता है । राज्य-व्यवस्था उत्तम एवं सुखद हो, तो भी राजा की बुराई लोग करते ही रहते है । आप अपनी अच्छाई ही देखें और लोकापवाद की उपेक्षा ही करें" -- लक्ष्मणजी ने निवेदन किया । आप्तवर ? मैं सब से बड़ा साक्षी हूँ । मैं तो लंका में ही था और रावण की गतिविधि पर पूरी दृष्टि रख रहा था । महादेवी ने रावण को और उसकी महारानी मन्दोदरी को दुत्कारा, फटकारा और अन्त में तपस्या कर के शरीर को कृश कर दिया । किन्तु कभी भी उसके सामने नहीं देखा । मैं जनता का समाधान कर सकूंगा । आप चिन्ता नहीं करें" -- विभीषण ने निवेदन किया । इसी प्रकार अन्य स्वजनों ने भी निवेदन किया । उन सब को अपना अन्तिम उत्तर देते हुए रामभद्रजी ने कहा ; --
"आप सब का कहना ठीक है, किंतु जो बात समस्त लोक के विरुद्ध हो, उसका तो यशस्वीजन को त्याग ही करना चाहिए" -- इस प्रकार कह कर रामभद्रजी ने सेनापति कृतांतवदन को आदेश दिया; --
"तुम सीता को रथ में बिठा कर वन में छोड़ आओ
रामभद्रजी की आज्ञा, लक्ष्मण के हृदय को आघात कारक लगी । उनका हृदय द्रवित हो गया । वे रोते हुए राम के चरणों में पड़ कर बोले -- "आर्य : ऐसा अत्याचार नहीं करें। निर्दोष दण्ड दे कर न्याय को खण्डित नहीं करें। आपके द्वारा किसी पर अन्याय नहीं होना चाहिए ।"
"लक्ष्मण ! अब तुम्हे चुप ही रहना चाहिए, एक शब्द भी नहीं बोलना चाहिए ।"
सीता को वनवास
लक्ष्मण अपना मुंह ढक कर रोते हुए वहाँ से चले गये । राम ने सेनापति कृतांत
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