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________________ धर्मदेशना -- मार्गानुसारिता धर्म और अर्थ को छोड़कर केवल काम का ही सेवन करने वाला, अधमदशा को प्राप्त होता है । धर्म और काम को छोड़ कर केवल अर्थ को साधने वाले लोभी का अर्थ (धन) व्यर्थ ही रहता है और अर्थ और काम को छोड़ कर केवल धर्म का ही सेवन करने वाले का गृहस्थाश्रम चलना कठिन हो जाता है । क्योंकि केवल धर्म की सर्व-साधना तो साधु ही करते हैं । तथा धर्म साधना करते पुण्योपार्जन से अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, इसलिए धर्म को कभी नहीं छोड़ना चाहिए । यदि कभी तीनों में से किसी एक के त्याग का प्रसंग उपस्थित हो जाय, तो धर्म और अर्थ को रख कर काम का त्याग कर देना चाहिए। शेष दो में से भी कभी किसी एक को छोड़ने का प्रसंग आवे, तो अर्थ को छोड़ कर धर्म को तो सदैव स्थिर रखना चाहिए । १६ अतिथि, साधु और दीन मनुष्यों का सत्कार । बिना बुलाये अचानक आने वाले अतिथि, साधु और दीन मनुष्यों को आहारादि का उचित रूप से दान करना । इस प्रकार दान करने की शुभ-प्रवृत्ति भी सद्गृहस्थ में होनी चाहिए । २० दुराग्रह का त्याग । जिस व्यक्ति में अभिमान की मात्रा विशेष होती है, वही दुराग्रह करता है । दुराग्रह ऐसा दुर्गुण होता है जो सत्य से दूर रखता है । यदि सम्यवत्व प्राप्त हो चुकी हो, तो उससे पतित कर देता है । अतएव दुराग्रह का त्याग भी धर्म-प्राप्ति में अति आवश्यक है । २१ गुणों का पक्षपाती । सद्गुणों का पक्षपाती होना भी एक गुण है । जिसमें सद्गुणों का पक्षपात नहीं होता, वह सद्गुणों का ग्राहक भी नहीं होता । गुणानुरागी ही गुणों का पक्षपाती होता है । सद्गुणों का पक्षपात करने से उनको प्रोत्साहन मिलता है। और गुणों का पक्षपाती गुणधर हो सकता है । २२ निषिद्ध देशकाल में नहीं जाना। जिस क्षेत्र, जिस देश और जिस स्थान पर, जिस काल में जाने की राज्यादि की मनाई हो, उस क्षेत्र और काल में नहीं जाना । इससे अप्रतीति और अनेक प्रकार के कष्ट आने की सम्भावना है । २३ बलाबल का ज्ञान । अपने और सामने वाले के बलाबल का ज्ञान भी होना आवश्यक है । यदि पहले से शक्ति का विचार कर लिया जाय, तो भविष्य में असफल हो कर पछताने का अवसर नहीं आवे और क्लेश से बचा रहे । २४ व्रतधारी और ज्ञानवृद्ध का पूजक । अनाचार का त्याग कर, शुद्ध आचार का पालन करने वाले व्रतधारी, ज्ञानी एवं अनुभवी का आदर-सत्कार और बहुमान करने से आत्मा में धर्म की प्रतिष्ठा सरल हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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