SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर चरित्र १० उपद्रव वाले स्थान का त्याग । जिस स्थान पर स्वचक्र या परचक्र का अथवा और किसी प्रकार का उपद्रव हो, उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए, जिससे धर्म, अर्थ आदि की हानि नहीं हो। ११ निन्दित कामों का त्याग । जो कार्य अपनी जाति और कुल में घणित माने गये हैं, उनका त्याग कर देना चाहिए और वैसे कार्य भी नहीं करने चाहिए, जिनका निषेध है । घृणित कार्य करने वाले के अन्य अच्छे कार्य भी उपहास का विषय बन जाते हैं। १२ आय के अनुसार व्यय । खर्च करते समय अपनी आय का ध्यान अवश्य रखना चाहिए । आय का ध्यान नहीं रखने से कर्जदार बनने का अवसर आ सकता है और इससे दुःख होता है। १३ उचित वेश-भूषा। देश, काल, जातिरिवाज तथा आर्थिक स्थिति के अनुसार वेश परिधान करना चाहिए। अपनी स्थिति से अधिक मूल्यवान् वस्त्र पहिनने से कठिनाई उत्पन्न होती है और लोक-निन्दा भी। तथा सम्पन्न होने पर घटिया वस्त्र पहिनने से कृपणता कहलाती है। १४ बुद्धि के आठ गुण युक्त । वे आठ गुण ये हैं--१ शुश्रूषा--शास्त्र सुनने की इच्छा २ श्रवण--शास्त्र सुनना ३ ग्रहण---शास्त्र के अर्थ को समझना ४ धारण--याद रखना ५ ऊह--उस पर विचार करना ६ अपोह--जो बातें युक्ति से विरुद्ध हो उसमें दोष होने के कारण प्रवृत्ति नहीं करना ७ अर्थविज्ञान--ऊह और अपोह द्वारा ज्ञान में हुए संदेह को दूर करना ८ तत्त्वज्ञान--निश्चय पूर्वक ज्ञान करना । ये आठ गुण धारण करने से बुद्धि निर्मल रहती है और अहितकारी प्रवृत्ति से बचाव होता है। १५ प्रतिदिन धर्मश्रवण । धर्म का श्रवण प्रतिदिन करते रहना चाहिए, इससे पाप से बचाव हो कर धर्म प्राप्त करना सरल हो जाता है और गुणों में वृद्धि होती है। १६ अजीर्ण होने पर भोजन का त्याग कर देना । अजीर्ण रहते हुए भोजन करने से रोग उत्पन्न होने की सम्भावना है । रोगी व्यक्ति धर्म से वंचित रहता है। १७ यथासमय भोजन । अपनी पाचन-शक्ति के अनुसार, यथासमय भोजन करना चाहिए । यदि पाचन-शक्ति का ध्यान नहीं रख कर स्वाद के कारण अधिक खा लिया, तो रोग की उत्पत्ति का भय है । यथासमय भोजन नहीं करने से भी गड़बड़ी हो जाती है। १८ अबाधित त्रिवर्ग साधन । धर्म, अर्थ और काम, ये 'त्रिवर्ग' कहलाते हैं। एक दूसरे को बाधा नहीं पहुँचे, इस प्रकार त्रिवर्ग का साधने वाला, धर्म के योग्य हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy