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________________ धर्मदेशना--मार्गानुसारिता जिनधर्म पाने की योग्यता प्रायः उसी में होती है, जिसकी आत्मा में कषाय की मन्दता हो गई हो और जिसका गृहस्थ जीवन भी धर्मप्राप्ति के अनुकूल हो । इस प्रकार की अनुकूलता को ‘मार्गानुसारिता' कहते हैं । वह नीचे लिखे ३५ गुणों से युक्त होती है। १ गृहस्थ को द्रव्य का उपार्जन करना पड़ता है, किन्तु वह अन्याय पूर्ण नहीं हो । २ वह शिष्टाचार का प्रशंसक हो। ३ उसका वैवाहिक सम्बन्ध, असमान कुलशील वालों और अभिन्न गोत्रीय से नहीं हो + कि जिससे आचार-विचार और संस्कारों की भिन्नता के कारण क्लेश होने का अवसर उपस्थित हो। (जो रूप आदि से आकर्षित और मोह के फन्दे में पड़ कर विषम संस्कार वालों से सम्बन्ध जोड़ लेते हैं, वे थोड़े ही दिनों में उसका परिणाम भुगतने लगते हैं।) ४ पाप से डरने वाला हो। जो पाप से नहीं डरता, वह जैनत्व के योग्य ही नहीं होता। ५ देश के प्रसिद्ध आचार का पालन करने वाला हो। जो शिष्टजन मान्य एवं देश-प्रसिद्ध आचार का पालन नहीं करता, उसके साथ देशवासियों का विरोध होता है और उससे आत्मा में क्लेश हो कर शान्ति-भंग होती हैं। ६ अवर्णवाद नहीं बोलने वाला हो। किसी के अवर्णवाद (बुराई) निन्दा नहीं करने वाला । बुराई करने से प्रतीति नहीं रहती और अधिकारी या राजा आदि की बुराई करने से क्लेश की प्राप्ति एवं धननाश आदि का भय रहता है। ७ रहने का घर, अच्छे और सच्चरित्र पड़ोसी युक्त हो । घर में प्रवेश करने और निकलने के द्वार अधिक नहीं हो । घर में अत्यन्त अन्धेरा या अत्यन्त धूप नहीं हो । अधिक द्वार और अधिक खुला घर हो, तो घर में चोर, जार और अनजानपने में अनिच्छनीय व्यक्ति के सरलता से घुसने और निकलने की सम्भावना रहती है। गुप्त घर में हवा और प्रकाश पर्याप्त रूप से नहीं आने के कारण रोगभय रहता है। ८ सुसंगति--सदाचारी और उत्तम मनुष्यों की संगति करनी चाहिए । बुरे मनुष्यों की संगति से खुद में भी बुराइयाँ आने का निमित्त हो जाता है और लोगों में हलकापन दिखाई देता है। ९ माता-पिता की सेवा । माता-पिता जैसे महान् उपकारी की सेवा करने वाला। यह विनय-गुण के लक्षण हैं । जो माता-पिता की भी सेवा नहीं करता, उसमें विनय-गुण होना असंभव जैसा होता है । + इन पैतीस गुणों का वर्णन इस ढंग से हुआ हैं कि जिससे हमारे जैसे की दृष्टि में आस्रव सेवन के उपदेश की अनुमति लगती है। इस प्रकार का विधान जिनेश्वर का नहीं होता। अतएव शंकास्पद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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