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तीर्थकर चरित्र
रखा । यौवनवय में प्रभावती आदि राजकन्याओं के साथ आपका विवाह हुआ। राजकुमार श्री मुनिसुव्रतजी के प्रभावती रानी से ‘सुव्रत' नाम का पुत्र हुआ । साढ़े सात हजार वर्ष तक कुमार अवस्था में रहने के बाद पिता ने आपको राज्याधिकार प्रदान किये । पन्द्रह हजार वर्ष तक आपने राज्य-भार वहन किया। भोगावली-कर्म का क्षय होने पर लोकान्तिक देवों ने आ कर निवेदन किया और आपने वर्षीदान देकर और राजकुमार सुव्रत को राज्याधिकार प्रदान कर फाल्गुन-शुक्ला प्रतिपदा को श्रवण-नक्षत्र में, दिन के चौथे प्रहर में, बेले के तप सहित एक हजार राजाओं के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की। आपको तत्काल मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया । ग्यारह मास तक प्रभु छद्मस्थ रहे । फिर फाल्गुन कृष्णा १२ को श्रवण-नक्षत्र में, राजगृह के नीलगुहा उद्यान में, चम्पकवृक्ष के नीचे, शुक्लध्यान की उन्नत धारा में चारों घनघाति कर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया । देवों ने समवसरण रचा । प्रभु ने धर्मदेशना दी। भगवान् की प्रथम देशना इस प्रकार हुई--
धर्म देशना मार्गानुसारिता
"समुद्र में भरा हुआ खारा-पानी, मनुष्यों और पशुओं के पीने के काम में नहीं आता, किंतु उसमें रहे हुए रत्नों को ग्रहण करने का प्रयत्न किया जाता है । उसी प्रकार विषय-कषाय रूपी खारेपानी से लबालब भरे हुए संसार-समुद्र में भी उत्तम रत्न रूप धर्म रहा हुआ है। वह धर्म, संयम (हिंसा त्याग) सत्य-वचन, पवित्रता (अदत्त-त्याग) ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, तप, क्षमा, मृदुता, सरलता और निर्लोभता--यों दस प्रकार का है । अपने शरीर में भी इच्छा रहित, ममत्व-वजित, सत्कार और अपमान करने वाले पर समान-दृष्टि, परीपह एवं उपसर्ग को सहन करने में समर्थ, मंत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना युक्त हृदय, क्षमाशील, विनयवन्त इन्द्रियों को दमन करने वाला, गुरु के अनुशासन में श्रद्धायुक्त रहने वाला और जाति-कुल आदि से सम्पन्न मनुष्य ही यति (अनगार) धर्म के योग्य होता है
और सम्यक्त्व-मूल पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त--यों बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म होता है।
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