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तीर्थकर चरित्र
से हटा देना ही उचित है ।" वे इसी ताक में रहने लगे । राज्य के चतुर मन्त्री को उनके पापपूर्ण विचार और दुष्ट योजना का पता लग गया। उसने राजकुमार अचल को सावधान कर ! दया । अचल अपने ज्येष्ठ भ्राताओं के षड्यन्त्र से बचने के लिए राजभवन छोड़ कर चल दिया । बन में भटकते हुए उसके पाँवों में एक बड़ा काँटा चुभ गया। उसकी तीव्र पोड़ा से अचलकुमार रोने लगा, जोर-जोर से आक्रन्द करने लगा ।
श्रावस्ती नगरी का निवासी 'अंक' नाम का एक मनुष्य सिर पर काष्ठभार उठाये हुए उधर आ निकला । उसे उसके पिता ने घर से निकाल दिया था । अचल का आन्द सुन कर वह उसके पास आया और उसका कांटा निकाल कर पीड़ा मिटा दी । अचल ने संतुष्ठ हो कर उससे कहा- “भद्र ! तुम मेरे परम उपकारी हो । जब तुम सुनो कि-अचल मथुरा का राजा हुआ है," तो वहाँ चले आना । मैं तुम्हारे उपकार का पारितोषिक दूँगा ।
अचलकुमार वहाँ से चल कर कौशाम्बी नगरी गया । वहाँ उसने 'सिंह' नामक युद्धकला-विद्या द गुरु के पास कौशाम्बी नरेश को धनुर्विद्या का अभ्यास करते देखा । अवलकुमार इस विद्या में प्रवीण था। उसने नरेश को अपना कौशल दिखाया । राजा ने देखा, - यह कुमार कोई सामान्य युवक नहीं है । यह उच्च कुलोत्पन्न राजकुमार है ।" राजा ने उसे अपने पास रख लिया और जब उसे विश्वास हो गया कि 'अचल उच्च कुल का युवक है' -- उसने अपने राज्य का कुछ भाग और अपनी प्रिय पुत्री दे कर जामाता बना लिया । अचलकुमार ने अपने पराक्रम से सैन्य बल बढ़ा कर अंग आदि कुल देश जीत कर अपने राज्य में मिला लिये। इसके बाद उसने मथुरा पर चढ़ाई की । उसका सामना करने के लिए उसके भानुप्रभ आदि आठों भाई आये । युद्ध प्रारम्भ हुआ । अन्त में आठों भाइयों को बन्दी बना कर सैन्य शिविर में रख लिया । अपनी सेना के पराजय और आठों पुत्रों के बन्दी हो जाने के समाचार से चन्द्रप्रभ नरेश निराश हो गए। उन्होंने अपने मन्त्रियों को सन्धी करने के लिए भेजा । अचलकुमार ने मन्त्रियों का स्वागत किया और अपना परिचय दिया । मन्त्रीगण हर्षविभोर भागते हुए नरेश के पास आये और अचलकुमार के आगमन की सूचना दी। राजा के हर्ष का पार नहीं रहा । महोत्सवपूर्वक राजकुमार अचल का नगर-प्रवेश हुआ। राजा ने राजकुमार अचल को विशेष पराक्रमी जान कर राज्य का उत्तराधिकार दिया और भानुप्रभ आदि बड़े पुत्रों को निकल जाने की आज्ञा दी । किन्तु अचल नरेश ने इस आज्ञा को स्थगित करवा कर उन्हें वहीं-- अपने अदृष्ट सेवक (बाह्य सम्मानयुक्त, किन्तु अन्तर में सेवकपन ) बना कर रख लिये ।
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