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________________ भरत-कैकयी का पूर्वभव देख कर राजा के विस्मय का पार नहीं रहा । राजा की विचारधारा सुलट गई । उसने संसार की भयानकता समझी और विरक्त हो गया। उसने संसार-त्याग कर श्रमण-जीवन स्वीकार करने की इच्छा की। वह सोच ही रहा था कि वह श्रुतरति पुरोहित वहां आया और राजा को विरक्त जान कर कहने लगा;-- "हिंसा तो संसार में होती ही रहती है । हम नित्य ही देख रहे हैं। बिना हिंसा के संसार-व्यवहार नहीं चल सकता । हिंसा देख कर आपकी तरह यदि सभी लोग साधु हो जायँ, तो यह संसार चले ही कैसे ? फिर भी यदि साधु बनना ही है, तो इतनी शीघ्रता क्यों करते हैं ? अभी तो जीवन बहुत लम्बा है । वृद्धावस्था आने पर साधु बनेगे, तो राजधर्म और आत्मधर्म दोनों का पालन हो जायगा।" पुरोहित की बात सुन कर राजा का उत्साह मन्द हो गया और वह राजकाज में लगा रहा । उस राजा के श्रोदामा नाम की रानी थी । वह पुरोहित पर आसक्त थी। कालान्तर में रानी को सन्देह हुआ कि--'यदि हमारे गुप्त पाप की बात राजा को मालूम हो गई, तो हमारी क्या दशा होगी ?' इस विचार से ही वह भयभीत हो गई। उसने सोचा--"इस भय से मुक्त हो कर निःशंक सुखभोग का एक ही मार्ग है, और वह हैराज-हत्या । इसी से हमारी बाधा दूर होगी और यथेच्छ सुखभोग सकेंगे।" रानी ने अपना मनोभाव श्रुतिरति पुरोहित को बतलाया। वह इस पाप में सम्मत हो गया। रानी ने राजा को विष दे कर मार डाला । कुछ काल के बाद श्रुतिरति भी मरा । दोनों चिरकाल तक भव-भ्रमण करते रहे । कालान्तर में राजगृह नगर में वे ब्राह्मण के यहाँ युगल पुत्र रूप में जन्मे । एक का नाम विनोद और दूसरे का रमण । रमण वेदाध्ययन के लिए विदेश गया। कुछ वर्षों तक अभ्यास करने के बाद वह राजगृही लौट आया । रात के समय पुर-द्वार बन्द होने के कारण वह एक यक्ष-मन्दिर में जा कर सो गया। उसके भाई विनोद की पत्नी, दत्त नाम के एक ब्राह्मण से गुप्त सम्बन्ध रखती थी। रात के समय विनोद को निद्रामग्न जान कर वह पूर्व योजनानुसार दत्त से मिलने उसी यक्ष-मन्दिर में आई । उसने नींद में सोये हुए रमण को ही दत्त समझ कर जगाया और उसके साथ कामक्रीड़ा करने लगी । विनोद को पत्नी के व्यभिचार का सन्देह हो गया था । इसलिए वह अवसर की ताक में था। पत्नी के घर से निकलते ही वह भी खड्ग ले कर पीछे हो लिया और रमण पर प्रहार कर के उसे मार डाला । अन्धकार में कोई किसी को पहिचान नहीं सकता था । पत्नी ने अपने पाप का भण्डा फुटा देख कर अपने पति विनोद पर छुरी से प्रहार किया, जिससे वह भी मर गया । दोनों भाई फिर भव-भ्रमण करते हुए एक धनाढ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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