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भरतजी की विरक्ति xxx भरत - कैकयी का पूर्वभव और मुक्ति
भरतजी का मन अत्यन्त प्रसन्न था । अब वे अपने को बहुत हलका समझने लगे थे । वे अनुभव करते थे कि रामभद्रजी के आने के बाद राज्य का सारा भार अपने सिर से उतर गया । उन्होंने राज्यभर में महोत्सव मनाने का आयोजन पहले से ही कर दिया था । प्रजा अपनी इच्छा से ही अनेक प्रकार के उत्सवों में मग्न हो रही थी ।
भरतजी की विरक्ति
उत्सव पूर्ण होने और सभी प्रकार से सामान्य स्थिति हो जाने के बाद एक दिन भरतजी ने श्री रामभद्रजी से निवेदन किया; --
" पूज्य ! आपकी आज्ञा को शिरोधार्य कर के इतने वर्षों तक मैंने राज्य का संचालन किया और धर्म-साधना से वंचित रहा । अब आप पधार गये हैं, इसलिये यह भार सम्भालिये और मुझे आज्ञा दीजिये, सो मैं अपने चिरकाल के मनोरथ को पूरा करूँ ।"
भरत की विरक्ति और होने वाले विरह का विचार कर के रामभद्रजी की छाती भर आई। उनकी आँखों में अश्रु भर आये। गद्गद् स्वर में उन्होंने कहा ; -
" वत्स ! ऐसी बात क्यों करते हो ? हम तो तुम्हारे बुलाने से ही आये हैं । राज्य तुम्हारा है । तुम यथावत् राज करते रहो । हम सब को त्याग कर विरह-वेदना उत्पन्न करना उचित नहीं है ।'
रामभद्रजी का उत्तर सुन कर भरतजी निराश हो कर जाने लगे, तो लक्ष्मणजी ने उन्हें हाथ पकड़ कर बिठाया । भरतजी के संसार त्याग की बात सुन कर सीताजी, विशल्या आदि रानियाँ भी वहां आ पहुँची । उन्होंने भरतजी का विचार पलटने के लिए जलक्रीड़ा करने का प्रस्ताव रखा और भरतजी को उसमें सम्मिलित हने का आग्रह किया । उनके आग्रह को मान कर भरतजी अपने अन्तःपुर सहित जलक्रीड़ा करने गये और सब के साथ क्रीड़ा करने लगे ।
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भरत - कैकयी का पूर्वभव और मुक्ति
भरतजी मात्र कुटुम्बियों का मन रखने के लिए, उदासीनतापूर्वक जलक्रीड़ा करके सरोवर से बाहर निकले। उधर गजशाला से भुवनालंकार नामक प्रधान गजराज मदान्ध
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