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________________ १६० तीर्थकर चरित्र उल्लासपूर्वक बधाइयां एवं मंगल-गीत गा रही थी। चारों ओर से कुंकुम, अक्षत एवं पुष्पादि की वर्षा हो रही थी। स्थान-स्थान पर विशेष सत्कार हो रहा था । भेट अर्पित की जा रही थी। केवल अयोध्यावासी ही नहीं, आसपास के गांवों और नगरों का जनसमूह भी विभिन्न दिशाओं से आ कर समुद्र में मिलती हुई नदियों के समान, इस मानव-महासागर में मिल कर एकाकार हो गया था। लम्बे विरह के बाद प्रियजनों के मिलन का यह अपूर्व उत्सव, एक अपूर्व भावावेग से छलक रहा था। जनता का हर्षांवेग हृदय में नहीं समा कर आँखों द्वारा बरस रहा था । मातृ-भवन में माताएँ और अन्य सम्बन्धित महिलाओं से मिलन की बारी तो अन्त में ही आई । हर्ष के आवेग में सभी की भूख-प्यास ही दब गई थी और सभी अट्टालिकाओं और गवाक्षों से इस प्रिय प्रवेशोत्सव के आनन्द को आँखों से देख और कानों से सुन कर हर्ष-विभोर हो रही थीं। ज्यों ही सवारी राजभवन में पहुँची, त्यों ही श्रीरामभद्रादि मातृभवन में पहुँचे और माताओं की चरण-वन्दना की। माताओं ने पुत्रों का मस्तक चूमा और आशीर्वाद दिया। पुत्र वधुओं को भी आशीर्वादों की वर्षा से नहलाया । आज का आनन्द अपूर्व ही था । राजमाता कौशल्या और सुमित्रा मान रही थी कि जैसे पुत्र का जन्म आज ही हुआ हो । उनके वर्षों पुराने शोक और बिछोह का अन्त आ गया था। आज के हर्षावेग ने उनकी वर्षों की वेदना, उदासी, मनःस्ताप और अशक्ति नष्ट कर, नई शक्ति एवं स्फूर्ति भर दी थी। उनके पुत्र, त्रिखण्ड विजेता और वधू , स्वर्ण की भाँति शुद्ध शीलवती सिद्ध होकर आई थी । वे त्रिखण्डाधिपति महाराजाधिराज की माताएँ थीं। माता कौशल्या ने लक्ष्मणजी से कहा;-- "वत्स ! राम और सीता ने तुम्हारे सहयोग से ही विजय प्राप्त की। तुमने इनकी सेवा की, दु:ख सहे और विजयमाला भी पहिनाई।" --" नहीं, माता ! जैसा मैं यहाँ तुम्हारे लाड़-प्यार में था, वैसा वहाँ भी मुझे इनकी ओर से माता-पिता को भांति लालन-पालन और रक्षण मिला । मैं तो वन में भी सुखी था। मेरी स्वेच्छाचारिता और निरंकुशता से ही निरपराध शम्बूक मारा गया और उसी के निमित्त युद्ध और रावण द्वारा पू. भावज-माता का हरण हुआ और लंका पर चढ़ाई आदि घटनाएँ घटी । यदि मैं बिना समझे काम नहीं करता, तो इतनी विपदाएँ, महायुद्ध और रक्तपात नहीं होता"--लक्ष्मण जी ने अपना दोष बतलाया। --"पुत्र ! भवितव्यता टाली नहीं जा सकती। तुम खेद मत करो। बाद में हम तुमसे वनवास की सारी कथा सुनेंगी"--माता ने कहा । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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