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________________ इन्द्रजीत आदि का पूर्व-भत उस समय लंका के बाहर कुसुमायुध उद्यान में अप्रमेयबल नाम के चार ज्ञानवाले मुनिराज पधारे। उन्हें वहाँ उसी रात्रि में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । देवों ने उनके केवलज्ञान की महिमा की । प्रातःकाल राम-लक्ष्मण और कुंभकर्ण आदि ने केवली भगवंत को वन्दना की और धर्मोपदेश सुना । देशना पूर्ण होने पर इन्द्रजीत और मेघवाहन ने अपना पूर्वभव पूछा ! भगवंत ने बतलाया; - " इसी भरतक्षेत्र में कौशाम्बी नगरी में तुम प्रथम और पश्चिम नाम के दो निर्धन भाई थे । तुम्हारी उदरपूर्ति भी कठिन हो रही थी । भवदत्त अनगार के उपदेश से प्रव्रजित हो कर तुम दोनों साधु हुए। कालान्तर में तुम विचरते हुए कौशाम्बी आये । उस समय कौशाम्बी में वसन्तोत्सव हो रहा था । उस उत्सव में वहाँ के राजा को अपनी रानी के साथ क्रीड़ा करते देख कर पश्चिम मुनि विचलित हो गए और निदान कर लिया कि-"यदि मेरे तप-संयम का फल हो, तो मैं इसी राजा और रानी का पुत्र बनूं ।” इस निदान से अन्य साधुओं ने रोकने का प्रयत्न किया, किंतु वे नहीं माने । मृत्यु पा कर वे उसी राजा और रानी के रतिवर्द्धन नाम के पुत्र हुए और प्रथम नामक मुनि, सयम का पालन कर पाँचवें देवलोक में ऋद्धि-सम्पन्न देव हुए। रतिवर्द्धन कुमार, अपनी रानियों के साथ कीड़ा करने लगा । जब प्रथम देव ने अपने भ्राता को भोगासक्त देखा, तो प्रतिबोध देने के लिए साधु का वेश बना कर आया और अपना पूर्वभव का सम्बन्ध बता कर धर्म-साधना करने की प्रेरणा की । अपने पूर्व सम्बन्ध तथा साधना की बात सुन कर रतिवर्द्धन एकाग्र हो गया । अध्यवसायों को शुद्धि से उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया और उसने खुद ने अपना पूर्वभव देख लिया । उसकी जीवन-धारा ही पलट गई। वह संयमी बन गया और चारित्र का पालन कर उसी पाँचवें देवलोक में देव हुआ। वहाँ से तुम दोनों भाई च्यव कर महाविदेह क्षेत्र के विबुध नगर में उत्पन्न हुए । राजऋद्धि का त्याग कर, संयम पाल कर अच्युत स्वर्ग में गए। वहाँ से च्यव कर तुम दोनों यहाँ रावण प्रतिवासुदेव के इन्द्रजीत और मेघवाहन नाम के पुत्र हुए और रतिवर्द्धन भव की माता रानी इन्दुमुखी, तुम्हारी माता मन्दोदरी हुई ।" पूर्वभव सुन कर इन्द्रजीत, मेघवाहन, कुंभकर्ण और मन्दोदरी आदि ने संसार त्याग कर चारित्र अंगीकार किया । सीता-मिलन केवली भगवंत को वन्दना - नमस्कार करके रामभद्रजी, लक्ष्मणजी, सुग्रीव आदि ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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