SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रामभद्रजी द्वारा आश्वासन विभीषण के उपदेश से प्रेरित हो कर राक्षसी-सेना ने राम-लक्ष्मण को प्रणाम किया और उनका अधिपत्य स्वीकार किया । रामभद्रजी उन पर प्रसन्न हुए और उनकी स्थिति यथावत् रहने दी । रामभ्रदजी द्वारा आश्वासन विभीषण का शोक बढ़ गया। उसने भी रावण के साथ ही देह त्याग करने का संकल्प किया और शोकावेग से -- " हा भ्रात ! हा वीर ! हा ज्येष्ठ धु !" प्रकार गगन भेदी हाहाकार करते हुए, छुरी निकाल कर छाती में मारने लगा । किन्तु रामभद्रजी ने उनका हाथ पकड़ लिया। उधर रावण की मन्दोदरी आदि रानियाँ भी करुण-विलाप करती हुई वहाँ आ पहुँची । उन्हें देख कर विभीषण विशेष दुःखी हुआ । उन सब को समझाते हुए राम-लक्ष्मणजी ने कहा- १८५ “ विभीषणजी ! तुम्हारे ज्येष्ठ-बन्धु दशाननजी वीर थे, योद्धा थे । उनके साथ संग्राम करने में देव भी सकुचाते थे । वे वीरतापूर्वक लड़े। उन्होंने कभी शस्त्र नीचा नहीं किया । उनके लिए शोक करना उचित नहीं । उठो और उनके शव को उत्तर क्रिया करो ।" 66 श्री रामभद्रजी ने कुंभकर्ण, इन्द्रजीत आदि को भी मुक्त कर दिया । राम-लक्ष्मण और सभी सम्बन्धियों ने मिल कर गोशीर्ष- चन्दन की चिता रची और कर्पूरादि उत्तम द्रव्यों से रावण के शरीर का दहन किया । रामभद्रजी ने पद्म-सरोवर में स्नान किया । अन्तिम संस्कार के बाद सभा हुई । रामभद्रजी ने गद्गद् कंठ से रावण की साधना और शौर्य की प्रशंसा की और कुंभकर्ण आदि को सम्बोधित कर कहा; -- "" 'वीर बन्धुओं ! आप अपना राज्य संभालो । न्याय-नीति एवं धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करो | हमें आपके राज्य- वैभव एवं अधिकार की तनिक भी इच्छा नहीं है | हम आपके शत्रु नहीं, मित्र हैं । आप सुखपूर्वक अपना-अपना राज्य सँभालो ।" Jain Education International -इस रामभद्रजी की यह घोषणा सुन कर कुंभकर्णादि ने कहा- 'महाभुज ! राज्य तथा सम्पत्ति की दुर्दशा तो हम देख ही चुके हैं । विनाशशील धन-सम्पत्ति और कामभोग की ज्वाला ही आत्मा को जलाती रहती है । हम अब इस ज्वाला से दूर रह कर शाश्वत सुखदायक धर्म की आराधना करना चाहते हैं । राजेश्वर हो कर नरकेश्वर' बनने की हमारी इच्छा नहीं । हम एकान्त शान्त निर्ग्रथ - साधना करेंगे।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy