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तीर्थकर चरित्र
आदि वीरों को शत्रु के बन्दी होने का स्मरण हो आता, तो शोक-मग्न हो जाता और रुदन करने लगता।
विशल्या के स्नानोदक का प्रभाव
राम-प्रासाद के प्रथम परकोटे के दक्षिण द्वार के रक्षक भामण्डल के पास एक विद्याधर आया और कहने लगा---
"यदि आप राम-लक्ष्मण के हितचिन्तक हैं, तो मुझे अभी राम के पास ले चलिये में लक्ष्मण के जीवन का उपाय बताऊँगा।"
भामण्डल उस विद्याधर को ले कर राम के पास आये। विद्याधर ने प्रणाम कर के कहा;--
"स्वामी ! मैं संगीतपुर नरेश शशिमण्डल का पुत्र हूँ। मेरा नाम प्रतिचन्द्र है । एक बार में अपनी स्त्री के साथ आकाश-मार्ग से जा रहा था कि सहस्रविजय विद्याधर ने हमें देखा । वह मेरी पत्नी पर आसक्त हो गया था। उसने उसे प्राप्त करने के लिए मुझसे युद्ध किया । युद्ध चिरकाल चलता रहा । अन्त में सहस्रविजय ने चण्डरवा शक्ति मार कर मुझे गिरा दिया। मैं अयोध्या नगरी के माहेन्द्रोदय उद्यान में पड़ा-पड़ा तड़प रहा था कि आपके बन्धु श्री भरतजी ने मुझे देखा । उन्होंने मुझ पर तत्काल सुगन्धी जल का सिंचन किया । जल-स्पर्श होते ही शक्ति मेरे शरीर से निकल कर अदृश्य हो गई और मेरे शरीर का घाव भी भर गया । मैं स्वस्थ हो गया। मैने अपने उपकारी श्री भरतजी से उस जल की विशेषता पूछी, तब उन्होंने कहा ;--
“गजपुरी का ‘विन्ध्य' नाम का सार्थवाह यहां आया था। उसके साथ एक भैंस था। अत्यंत भार से वह भग्न हो कर वहीं गिर पड़ा। नागरिकजन उसके मस्तक पर पाँव रख कर जाने-आने लगे। उपद्रव से पीड़ित हो कर भैंसा मर गया और अकाम-निर्ज से, पवनपुत्रक नाम का वायुकुमार देव हुआ। अपनी कष्टप्रद मृत्यु से क्रोधित हो, उसने नगर में विविध प्रकार के रोग उत्पन्न किये । द्रोणमेघ नामक राजा, मेरे मामा हैं और मेरे ही राज्य में रहते हैं। किन्तु उनकी जागीर की सीमा में किसी को भी कोई रोग नहीं हुआ। जब मुझे ज्ञात हुआ, तो मैने उनसे इसका कारण पूछा । उन्होंने कहा ;--
मेरी रानी, व्याधि से अत्यन्त पीड़ित रहती। किंतु गर्भवती होने के बाद वह निरोग हो गई। उसके गर्भ से पुत्री का जन्म हुआ । 'विशल्या' उसका नाम है । जब
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