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रामभद्रजी हताश
अपने स्थान पर जाइये " - - रामभद्रजी ने सुग्रीव, अंगद, हनुमान, भामण्डल आदि को संबोध कर कहा । विशेष में विभीषण से कहा - " बन्धु ! मुझे सब से अधिक दुःख इस बात का है कि मैं तुम्हारा लंकेश्वर का अभिषेक कराने का अपना वचन पूरा नहीं कर सका । दुर्भाग्य ने मुझे विफल कर दिया । किन्तु में कल प्रातःकाल ही रावण को लक्ष्मण के मार्ग पर भेज कर तुम्हारा मनोरथ पूर्ण कर दूंगा और उसके बाद में भी उस मार्ग पर चला जाऊँगा । बिना लक्ष्मण के मुझे अपना जीवन और सीता भी दुःखरूप लगेंगे" -- रामभद्रजी अधीर हो कर बोले ।
-- " महाभाव ! धीरज रखिये । शक्ति से बाधित व्यक्ति रात्रिपर्यन्त जीवित रहता है । अभी सारी रात्रि शेष है। इस बीच, यन्त्र-मन्त्रादि उपचार हो सकते हैं । हमें अन्य सभी विचार छोड़ कर लक्ष्मणजी को सावधान करने का यत्न करना चाहिए' विभीषण ने कहा ।
"
विभीषण की बात सभी को स्वीकार हुई । सुग्रीव आदि ने विद्याबल से एक प्रासाद बनाया, प्रासाद में राम और लक्ष्मण को रखा । प्रासाद के सात परकोटे बनाये । प्रत्येक परकोटे की चारों दिशाओं में चार द्वार बनाये । पूर्व के द्वार पर अनुक्रम से --सुग्रीव, हनुमान तार, कुन्द, दधिमुख, गवाक्ष और गवय रहे । उत्तरदिशा के द्वार पर अंगद, कुर्म अंग, महेन्द्र, विहंगम, सुषेण और चन्द्ररश्मि रहे । पश्चिम द्वार पर -- नील, समरशील, दुर्धर, मन्मथ, जय, विजय और सम्भव रहे और दक्षिण के द्वार पर -- भामण्डल, विराध, गज, भुवनजीत, नल, मंद और विभीषण रहे और पहरा देने लगे ।
लक्ष्मण के शक्ति लगने और रामभद्र के जीवन-निरपेक्ष होने के समाचार सीताजी ने सुने, तो उन्हें भी आघात लगा । वे भी मूच्छित होगई । मूर्च्छा हटने पर वह विलाप करने लगी । सीताजी का रुदन एक विद्याधर- महिला से नहीं देखा गया । उसने अवलोकिनी विद्या से देख कर कहा-
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" देवी ! तुम्हारे देवर लक्ष्मणजी, प्रातःकाल स्वस्थ हो जावेंगे और अपने ज्येष्ठबन्धु रामभद्रजी सहित यहाँ आ कर तुम्हें आनन्दित करेंगे ।"
उपरोक्त भविष्यवाणी सुन कर सीता स्वस्थ हुई और प्रातःकाल की प्रतिक्षा करने
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लगी ।
उधर, रावण कभी प्रसन्न, तो कभी शोकाकुल होने लगा । लक्ष्मण की मृत्यु और उससे राम की भी होने वाली मृत्यु तथा युद्ध समाप्ति की कल्पना कर के रावण प्रसन्न होता, किन्तु जब कुंभकर्ण, जैसे सहोदर और इन्द्रजीत, मेघवाहन आदि पुत्रों, जम्बुमाली
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