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________________ १७४ तीर्थकर चरित्र "विभीषण ! तू मूर्खता मत कर । राम बड़ा धूर्त है । उसने सिंह जैसे मुझ से अपने प्राण बचाने के लिए तुझे आगे कर दिया और वह छिप गया। भाई ! मेरे हृदय में तेरे प्रति वही प्रेम है । तू यहाँ से हट जा । मैं आज राम-लक्ष्मण को सेना सहित मार डालूगा । तू प्रसन्नतापूर्वक यहाँ से हट कर, अपने घर चला जा । मैं तुझ पर वैसी ही कृपा रखता हूँ। जा, चला जा और राम-लक्ष्मण को आने दे-मेरे सामने ।" “आप अज्ञान तथा भ्रम में ही भूल रहे हैं--भ्रातृवर ! राम स्वयं आपके लिए यमराज बन कर आ रहे थे। किंतु मैने ही उन्हें रोका है-आपको एक बार फिर समझाने के लिए । यह मेरी अन्तिम विनती है आपसे कि आप सीता को लौटा कर अपने कुल-विनाश तथा मानव-संहार को रोक दें । आप विश्वास रखें कि में न तो राज्य के लोभ से आपके शत्रु पक्ष में मिला हूँ और न आपसे भयभीत होकर ही । मैं मात्र आपकी कलंकित नीति, कुल को दाग लगाने वाले पापाचार तथा इसका विनाशक परिणाम देखकर न्याय-पक्ष में आया हूँ। याद आप अब भी भूल सुधार लेंगे, तो मैं राम-पक्ष से निकल कर आपकी सेवा में आ जाऊँगा । आप अब भी समझें । शासक ही न्याय, नीति एवं सदाचार का निर्वाह नहीं करे, तो कौन करेगा? सदाचार का त्याग करने वाला शासक तो अराजकता फैलाता है।" "अरे कायर ! भ्रष्ट-मति ! तू अब भी मुझे डराता है ? मैंने तो भ्रातृ-प्रेम से तुझे समझाया और भ्रातृ-हत्या के पाप से बचने लिए तुझ-से दो शब्द कहे । किन्तु तू अपनी कुबुद्धि नहीं छोड़ता, तो भुगत अपनी करणी का फल ।" रावण ने धनुष चढ़ा कर टॅकार किया। विभीषण भी धनुष पर टॅकार करके युद्ध करने को तत्पर हो गया। दोनों भाई विविध प्रकार के शस्त्रास्त्र से युद्ध करने लगे। इस युद्ध में इन्द्रजीत कुभकर्ण आदि राक्षस, रावण के पक्ष में युद्ध करने को आये । कुंभकर्ण का सामना राम ने और इन्द्रजीत का लक्ष्मण ने किया। रावण की ओर के सिंहजघन से युद्ध करने, रामपक्ष के वीर नल, घटोदर के सामने दुर्मर्ष, दुर्मति के विरुद्ध स्वयंभू, शंभु के विरुद्ध नील, मय राक्षस के विरुद्ध अंगद, चन्द्रनख के विरुद्ध स्कन्ध, विघ्न के सामने चन्द्रोदर का पुत्र, केतु के सामने भामण्डल, जंबूमाली के विरुद्ध श्रीदत्त, कुंभकण के पुत्र कुंभ के विरुद्ध हनुमान, सुमाली के विरुद्ध सुग्रीव, धुम्राक्ष के विरुद्ध कुन्द और सारण राक्षस के सामने बाली का पुत्र चन्द्ररश्मि । इस प्रकार अन्य राक्षसों के सामने रामपक्ष के वीर सन्नद्ध हो कर लड़ने लगे। युद्ध उग्न से उग्रतम हो गया और नर-संहार का भयंकरतम दौर चलने लगा। सभी के मन में क्रोधानल भयंकर रूप से जलने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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