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तीर्थकर चरित्र
के दुःख से दुःखी होकर सेना सहित आ पहुंचा था और वहीं उपस्थित था।
रत्नजटी से सीता का पता लगना
सुग्रीव स्वयं भी खोज करने के लिए आकाश-मार्ग से गया था। वह कम्बूद्वीप पहुँचा । सुग्रीव को अपने निकट आता देख कर रत्नजटी चिन्तित हुआ। उसने सोचा"रावण मुझ पर क्रुद्ध है। उसने मेरी समस्त विद्याओं का हरण कर लिया और अब मुझे मारने के लिए वीर सुग्रीव को भेजा है।" वह इस प्रकार चिन्ता-मम्न था कि सुग्रीव उसके पास ही आ गया और बोला-"रे रत्नजटी! क्या तू मुझे पहिचानता नहीं। यहाँ क्या कर रहा है ?"
-"महानुभाव ! रावण ने मेरी दुर्दशा कर दी। रावण सीता का हरण कर के ले जा रहा था। मैंने सीता का विलाप सुन कर रावण का सामना किया तो, उस दुष्ट ने मेरी समस्त विद्याएँ हरण कर ली। बस, उसी समय में यहाँ पड़ा और यहीं भटक रहा हूँ आप इधर कैसे पधारे ?”
"मैं सीताजी की खोज में ही आया हूँ। तू अच्छा मिला। चल मेरे साथ।"
सुग्रीव, रत्नजटी को साथ ले कर रामभद्रजी के पास आया। रत्नजटी ने सीता का हाल सुनाते हुए कहा;--
"देव ! सीताजी का हरण रावण ने किया है। जब रावण उन्हें ले कर विमान द्वारा आकाश-मार्ग से जा रहा था, तब वे विलाप करती हुई पुकार रही थी। उनकी पुकार इस प्रकार मेरे कानों में पड़ी;--
"हे प्राणेश राम! हे वत्स लक्ष्मण ! हे वीर भामण्डल ! दौड़ो। यह दुरात्मा चोर मुझे लिये जा रहा है। इस पापात्मा डाकू से मुझे छुड़ाओ।"
मैने युकार सुनी, तो समझ लिया कि यह मेरे मित्र भामण्डल की बहिन है। कोई दुष्ट उसका हरण कर के ले जा रहा है। मुझ-से नहीं रहा गया। में तत्काल उड़ा और रावण से भिड़ गया। उस दुष्ट ने मेरी समस्त विद्याओं का हरण कर लिया, जिससे मैं वहीं नीचे गिर पड़ा। वानरपति सुग्रीवजी का सुयोग मिलने पर मैं आज वहां से यहां आ सका।"
रत्नजटी की बात सुन कर रामभद्रजी प्रसन्न हो गए। वे बार-बार उससे सीताजी
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