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सीता की खोज
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आपस में परामर्श कर के उन्होंने लंका के प्रकोष्ट पर यान्त्रिक शस्त्र रखवा दिये और आवश्यक प्रबन्ध कर दिया ।
सीता की खोज
सीता के विरह से रामभद्रजी* दग्ध चितित एवं खेदित रहने लगे। उनकी प्रसन्नता एवं सुख-शांति लुप्त हो गई थी। लक्ष्मणजी उन्हें सान्तवना देते, किन्तु कोरी सान्तवना से तुष्टि नहीं होती। उनका एक-एक दिन वर्ष के समान बीतने लगा। सुग्रीव अपने अन्तःपुर में मग्न रहने लगा। वह भोग-विलास में पड़ कर अपना वचन भूल गया । जब लहाणजी को अनुभव हुआ कि सुग्रीव भोग-विलास में अपना कर्तव्य ही भूल गया, तो वे कुपित हो गए और धनुष-बाण तथा खड्ग ले कर नगरी में आये। उनके कोपयुक्त आगमन से भूमि कम्पित होने लगी, मार्ग के पत्थर चूर्ण होने लगे। उनका कोपयुक्त मुख देख कर द्वारपाल भयभीत हो गए और नम्रतापूर्वक पीछे हट गए। जब सुग्रीव को लक्ष्मणजी के आगमन की सूचना मिली, तो वह दौड़ा हुआ उनके निकट आया और हाथ जोड़ कर खड़ा रहा । लक्ष्मणजी क्रोधावेश में बोले ;--
"कपिराज ! तुम तो कृतार्थ हो गए । तुम्हारा दुःख मिट गया। अब भोगासक्त हो कर अन्तःपुर में ही निमग्न हो गए । तुम्हारे स्वामी रामभद्रजी वन में वृक्ष के नीचे बैठे हुए दुःखपूर्ण समय व्यतीत कर रहे हैं, इसका तुम्हें भान ही नहीं रहा । तुम अपना वचन भी भूल गए । क्या तुम्हें भी साहसगति के रास्ते--यमधाम, जाना है ? चल साथ होजा और सीताजी की खोज प्रारम्भ कर।"
--"स्वामी ! मुझ से अपराध हो गया है । क्षमा करें और मुझ पर प्रसन्न होवें। आप तो मेरे स्वामी हैं । मैं अभी से सेवा में लग जाता हूँ'--सुग्रीव ने लक्ष्मणजी को शान्त किया और उनके साथ रामभद्रजी के पास आ कर प्रणाम किया। उसने अपने सैनिकों को चारों ओर खाज करने के लिए भेजा और स्वयं भी खोज में लग गया।
सीता के अपहरण के समाचार सुन कर भामण्डल चिंतित हुआ। वह तत्काल रामभद्रजी के पास आया और उन्हीं के पास रहने लगा। विराध नरेश भी अपने स्वामी
• 'रामभद्रजी' नाम पर हमारे पास कुछ भाइयों के पत्र आये हैं, किन्तु भि. श. पु. चरित्र में सर्वत्र यही नाम लिया है बोर 'च उपन्न महापुरीस चरियं' में भी यही नाम है । अतएव हमने यही दिया है।
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