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तीर्थकर चरित्र
और जारकर्म नहीं होना चाहिए। इस प्रकार की हीनदृष्टि, विनाश की नींव लगाती है । अब भी आप सीता को लौटा दें, तो बिगड़ी बात सुधर जायगी । अन्यथा यह निमित्त दुर्भाग्य जनक होया ।"
“अरे ओ भीरु, कायर ! तू इस प्रकार बोलता है ? मेरी शक्ति का तुझे पता नहीं । क्या तू मुझे उन वनवासी राम-लक्ष्मण से भी गया-बीता मानता है ? आने दे उन्हें यहां । मैं उन्हें क्षणमात्र में ही गत-प्राण कर दूंगा । जा निश्चित रह,"-रावण बोला ।
“प्रातृवर ! जानी की भविष्यवाणी सत्य होती दिखाई देती है । सीता के निमित्त से अपने कुल का विनाश होने वाला है। पतन-काल का उदय ही मेरी प्रार्थना व्यर्थ करवा रहा है। यही कारण है कि मेरे मारने पर भी दशरथ जीवित रहा। भावी अन्यथा होने वाली नहीं है । फिर भी में प्रार्थना करता हूँ कि आप सीता को लौटा ही दें। इसी में हम सब का हित है "---विभीषण ने पुनः प्रार्थना की ।
रावण ने विभीषण की प्रार्थना की उपेक्षा की और उठ कर देवरमण उद्यान में आया । वह सीताको विमान में बिठा कर बाकाश में ले गया और अपने भव्य-भवन, उपवन वाटिकाएँ, निर्मल बस के झरने, प्रपात, नदिर्ये, कुण्ड आदि प्राकृतिक रम्य एवं क्रीड़ास्थान तथा अन्य रमणीय स्थल दिखा कर ललचाने लगा। परन्तु सीता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । अन्त में इस प्रयत्न में भी विफल हो कर, सीता को अशोकवन में छोड़ कर रावण चला गया।
रावण पर अपनी शार्थना का कोई प्रभाव नहीं देख कर विभीषण ने मन्त्री-मण्डल को एकत्रित किया और कहा
“मन्त्रीगण ! अपना स्वामी कामपीड़ित हो कर दुराचारी बन गया है । कामप्रकोप तो वैसे भी हानिकारक होता है। किन्तु परस्त्री लम्पटता तो रसातल में ले जाने वाली है । ज्ञानियों की भविष्यवाणी सफल होती दिखाई देती है। मैंने विनम्र प्रार्थना की--वह व्यर्थ गई। कहो, बब क्या किया जाय?"
मन्त्रियों ने कहा- हम तो नाम के ही मन्त्री हैं, शक्तिशाली मन्त्री तो आप ही हैं । जब आपको हितकारी प्रार्थना नहीं मानी, तो हमारी कैसे मानेगे ? हमने तो सुना है कि राम-लक्ष्मण के पक्ष में सुग्रीव और हनुमान भी मिल गये हैं । न्याय, नीति और धर्म उनके पक्ष में है । इसलिए हमें भर है कि हमारा भविष्य अच्छा नहीं है। फिर भी हमें अपने कर्तव्य का पालन करना ही चाहिये।"
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