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________________ रावण से विभीषण की प्रार्थना लाया है और उसके अनुकूल नही होने पर भाँति-भांति के उपद्रव कर के उसे कष्ट देता है ।" विभीषण तत्काल देवरमण उद्यान में आया और सीता के पास आ कर सान्त्वना देता हुआ बोला ; -- 56 भद्रे ! तुम कौन हो ? किस भाग्यशाली की पुत्री ? तुम्हारे पति कौन है ? यहाँ आने का क्या कारण है ? तुम अपना वृत्तांत निःसंकोच मुझे सुनाओ । मुझसे भय मत रखो | मैं पर-स्त्री सहोदर "" विभीषण की बात पर सीता को विश्वास हुआ। उसने कहा; -- 44 ' बन्धुवर ! में जनक नरेश को पुत्री और भामण्डल विद्याधर की बहिन हूँ । दशरथ नरेश मेरे श्वशूर हैं। रामभद्रजी मेरे पति हैं । मैं अपने पति और देवर लक्ष्मणजी के साथ दण्डकारण्य में थी। मेरे देवर लक्ष्मण इधर-उधर घूम कर वन विहार कर रहे थे । अचानक उनकी दृष्टि आकाश में अधर रहे हुए श्रेष्ठ खड्ग पर पड़ी । उन्होंने उसे ले लिया और कौतुकवश निकट रही हुई वंशजाल पर एक हाथ चला दिया । उस झाड़ी में ही खड्ग का साधक उलटा लटक कर साधना कर रहा था । खड्ग का प्रहार झाड़ी में रहे हुए साधक की गरदन पर पड़ा और वह कट कर लक्ष्मण के पास ही आ गिरा। यह देख कर लक्ष्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ। वे अपने ज्येष्ठ भ्राता के पास आये और इस दुर्घटना का पश्चात्तापपूर्वक निवेदन किया । इतने में लक्ष्मण के चरण चिन्हों पर चलती हुई कोई क्रोधित महिला आई । कदाचित् वह साधक की उत्तर-साधिका थी । किन्तु ज्योंहि उसकी दृष्टि इन्द्र के समान स्वरूपवान् मेरे पति पर पड़ी, वह मोहित हो गई और अनुचित याचना करने लगी । मेरे पति ने उसकी माँग अस्वीकार की, तो वह एक राक्षसी सेना ले कर आई । उस विशाल सेना से युद्ध करने के लिए लक्ष्मण गए। मेर पति ने लक्ष्मण को जाते समय कहा था कि संकट उपस्थित होने पर सिंहनाद करना । इसके बाद रावण नेमपूर्वक नकली सिंहनाद कर के मेरे पति को मेरे पास से हटाया और मेरा अपहरण कर के मुझे यहाँ ले आया है। रावण के मन में पाय भरा हुआ है । किन्तु उसकी पापी इच्छा कभी भी पूर्ण नहीं होगी । में धर्म पर जीवन को न्यौछावर कर दूंगी।" 'बहिन शान्त रहो । में जाता हूँ। 66 अपने भाई को समझा कर तुम्हें मुक्त करने का प्रयत्न करूँगा "-- विभीषण ने कहा और चल दिया । Jain Education International रावण को विनयपूर्वक नमस्कार करने के बाद विभीषण ने कहा; " स्वामिन्! सीता का अपहरण कर के आपने बहुत बुरा काम किया है । यह अनीति और दुराचार अपने कुल के प्रतिकूल है। आप महापुरुष हैं । आपके द्वारा ऐसा चौर्यकर्म १५१ For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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