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हरिवंश की उत्पत्ति
"माता ! मैं किस मुंह से मन का भेद खोलू? मेरी हीन-जाति और हीन-स्थिति, मेरा भेद नहीं खोलने देती। फिर भी आपकी शक्ति पर मुझे विश्वास है, इसलिए मन का भेद खोलती हूँ।"
" देवी ! इस वसंत ने मेरे मन में आग लगा दी । ज्योंहि महाराजा के दर्शन हुए, त्यों ही मेरा मन निरंकुश हो गया। महाराजा ने मेरा मन हरण कर लिया। अब मैं क्या करूँ ?"
"पुत्री ! तेरा दुःख साधारण नहीं है । महाराजाधिराज से तेरा सम्बन्ध मिलाना असंभव है । फिर भी तेरा दुःख मुझ-से देखा नहीं जाता। इसलिए तेरे उपकार के लिए मैं देव की आराधना करके वशीकरणमन्त्र से राजा को वश में करूँगी । मैं जाती हूँ, साधना करके राजा का मन तेरी ओर कर दूंगी । तू मुझ पर विश्वास करके चिन्ता छोड़ दे । मैं आज रात भर साधना करके कल तुझे राजा के महल में पहुँचा दूंगी । तू तैयार रहना।"
इस प्रकार आश्वासन दे कर आत्रेयी, मन्त्री के पास आई और स्थिति समझाई। मन्त्री ने राजा से निवेदन कर विश्वस्त बनाया। दूसरे दिन आत्रेयी ने वनमाला के पास जा कर अपनी साधना की सफलता के समाचार सुनाये और उसे साथ ले कर अन्तःपुर में पहुँचा आई । वनमाला के साथ राजा कामक्रीड़ा करने लगा।
___ वीरकुविंद बुनकर ने घर आकर पत्नी को नहीं देखा, तो इधर-उधर खोजने का प्रयत्न किया । जब वह कहीं भी नहीं मिली, तो वह उद्विग्न हो उठा। उसकी दशा विक्षिप्त जैसी हो गई । वह गली-गली घुमता और वनमाला को पुकारता हुआ भटकने लगा। उसके कपडे फट गए, बाल बढ़ गए.सारा शरीर धल मलिन हो गया। उसकी दशा ही बिगड़ गई। उसे पागल समझ कर चिढ़ाने के लिए बालकों का झुण्ड पीछे लग गया । एकबार वह वनमाला का रटन करता हुआ और दर्शकों से घिरा हुआ राजमहल के निकट आ गया। कोलाहल सुन कर राजा और वनमाला खिड़की में आ कर देखने लगे । वीरकुविंद पर दृष्टि पड़ते ही राजा और वनमाला स्तब्ध रह गए। उन दोनों के मन में ग्लानि भर गई । वे सोचने लगे;--
"हम कितने नीच हैं। हमने काम के वश हो कर दुराचार किया और इस बिचारे का जीवन बरबाद कर दिया। हम कितने पापी हैं । हमारे जैसा विश्वासघाती, निर्दयी, ठा और कौन होगा । धिक्कार है हमारे जीवन और पापचरण को। और धन्य है, उन
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