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तीर्थंकर चरित्र
हरिवंश की उत्पत्ति
कौशाम्बी नगरी में सुमुख नाम का राजा शासन कर रहा था । वह पराक्रमी स्वरूपवान और तेजस्वी था। एक बार वसंतोत्सव मनाने के लिये वह हाथी पर सवार हो कर, नगरी के मध्य में होता हुआ उद्यान की ओर जा रहा था। मार्ग में वीरकुविंद नामक जुलाहे की पत्नी वनमाला पर राजा की दृष्टि पड़ी । वह अत्यन्त सुन्दर थी । उसका मोहक रूप देख कर राजा आसक्त हो गया । उसका मन चंचल हो गया। प्रधान मन्त्री सुमति भी राजा के साथ था । उसने राजा का चेहरा देख कर मनोभाव जान लिया । मन्त्री ने राजा से पूछा --
" स्वामिन् ! आप किन विचारों में खो गये हैं ? आपके हृदय में कुछ उद्वेग है ? इस उल्लास एवं विनोद के अवसर पर आपके चिंतित होने का क्या कारण हैं ?
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'सखे ! उस रूपसुन्दरी ने मेरा मन चुरा लिया है। ऐसी अनुपम सुन्दरी मेंने अब तक नहीं देखी। जब तक यह कामिनी मुझे नहीं मिले, तबतक मेरा मन स्वस्थ नहीं रह सकता । तुम उसे अन्तःपुर में पहुँचाने का यत्न करो ।”
" स्वामिन् ! मैंने उस सुन्दरी को देखा है । वह जुलाहे की पत्नी है । मैं उसे अन्तःपुर में पहुँचाने का यत्न करूँगा । आप निश्चिन्त होकर उत्सव मनावें । "
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मन्त्री ने 'आत्रेयी' नाम की परिव्राजिका को बुलाई। वह बड़ी चतुर और विदुषी थी । गृहस्थों के घरों में उसकी पहुँच थी वह सम्पन्न एवं समृद्धजनों के लिए दूती ( कुटनी) का काम भी करती थी । मन्त्री ने आत्रेयी को बुला कर राजा का काम बतलाया । आत्रेयी वनमाला के पास पहुँची और कहने लगी; -
" वत्से ! मैं देखती हूँ कि तुझ पर वसंत की बहार नहीं है । तेरा चाँद सा मुखड़ा मुरझा रहा है । बोल बिटिया ! तुझे किस बात का दुःख है ?"
" माता ! मेरे दुःख की कोई दवा नहीं हो सकती । मेरा मन बहुत पापी है । यह धरती का कीड़ा होते हुए भी आकाश के चांद को प्राप्त करना चाहता है । असंभव इच्छा कभी पूरी नहीं होती, फिर भी निरंकुश मन व्यर्थ ही आशा के भँवर में पड़ा हुआ है । यह दुष्ट मन मानता ही नहीं । में क्या करूँ ?"
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'बेटी ! तू अपने मन की बात कह । मैं तेरी इच्छा पूरी करने का जी-जान से प्रयत्न करूँगी " -- आत्रेयी ने विश्वास दिलाया ।
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