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विराध का सहयोग xxx खर का पतन .
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दोनों भुजाओं में बाँध कर आलिंगन किया लक्ष्मणजी । कर भी हृदय भर आया। उन्होंने कहा
___“पूज्य ! किसी धूर्त ने छलपूर्वक सिंहनाद कर के आपको ठगा और देवी का अपहरण किया। कितु मैं उस दुष्ट को देवी के साथ ही लाऊँगा । वह अधम अपने पापकर्म का फल अवश्य भुगतेगा । हमें तत्काल खोज प्रारम्भ करनी है । सर्व प्रथम इस विराध को पाताल-लंका का राज्य प्रदान करें। युद्ध के समय यह मेरे पक्ष में आ कर शत्रु से लड़ने को तत्पर हुआ था, तब मैंने इसे इसके पिता का राज्य वापिस दिलाने का वचन दिया था । अब उस वचन को पूरा करें और फि। देवी की खोज में चलें।"
विराध ने भी उस्मो समय अपने विद्याधर अनुचरों को सीता की खोज के लिए चारों ओर भेज दिये। उन विद्याधरों के आने तक रामभद्रादि वहीं रहे और शोक, चिन्ता तथा उद्वेगपूर्वक समय व्यतीत करने लगे । बहुत दूर-दूर तक स्लोज करने के बाद वे विद्याभर निराशायुक्त लौट आये। उन्हें निराश एवं अधोमुख देख कर रामभद्रजी आदि समझ गए। उन्होंने कहा
“भाई । तुमने परिश्रम किया, किन्तु हमारे दुर्भाग्य ने तुम्हारा परिश्रम सफल नहीं होने दिया। इसमें तुम्हारा क्या दोष ? जब अनुभ-कर्म का उदय होता है, तब कोई उपाय सफल नहीं होता।"
"स्वामिन् ! आप खेद नहीं करें । खेद-रहित हो कर प्रयत्न करने में ही सफलता का मूल रहा है। में आपका अनुचर हूँ। आज आप मेरे साथ पधार कर मुझे पाताल-लंका में प्रवेश करवा दें। वहां से देवी की खोज करना बहुत सरल होगा।"
राम-लक्ष्मण, विराध और उसकी सेना के साथ पाताल-लंका के निकट आये। उधर खर का पुत्र सुन्द, अपने पिता और काका की मृत्यु जान कर, बड़ी भारी सेना ले कर निकल रहा था । नगर के बाहर ही विराध के साथ उसका युद्ध छिड़ क्या । लक्ष्मण भी दिराध की सहायता के लिए युद्ध-भूमि में आ डटे । जब चन्द्रनखा ने देखा कि लक्ष्मण और राम, विराध के पक्ष में लड़ने को तत्पर हैं, तो उसने अपने पुत्र सुन्द को एकान्त में बुला कर समझाया । उसे राम-लक्ष्मण की शक्ति का भान करा कर अपने भाई रावण के पास लंका में भेज दिया । युद्ध समाप्त हो गया । विजयी सेना ने नगर में प्रवेश किया। विराध को पाताल-लंका का राज्य दिया । राम-लक्ष्मण, खर के भवन में ठहरे। विराध, सुन्द के भवन में रहने लगा।
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