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________________ दो सुग्रीव में वास्तविक कौन किष्किधा के राजा सुग्रीव की रानी तारा अत्यन्त सुन्दरी छौ । उसके रूप साहसगति विद्याधर मुग्ध था * । साहसमति ने तारा को प्राप्त करने के लिए हिमाचल को गुफा में रह कर तप किया और प्रतारिणी विद्या सिद्ध कर ली । इस विद्या के द्वार वह इच्छित रूप बना कर अपना मनोरथ साधना चाहता था । सुग्रीव वन विहार कर रहा था, तब साहसगति प्रतारिधी विद्या के द्वारा सुग्रीव का रूप बना कर अन्तःपुर में कला गया}} उसके पीछे वास्तविक सुग्रीव बन-विहार में लौट कर आया और अन्तःपुर में प्रवेश करने लगा,तो अन्तःपुर-रक्षक आश्चर्य में पड़ मारमा । उसने अपना कर्त्तव्य स्थिर कर के, कन्द में आये हुए सुग्रीव को रोकते हुए कहा;-" महाराज तो अभी अन्तःपुर में पधारे हैं, आप कौन हैं ? जबतक आपके विषय में विश्वस्त नहीं हो जाऊँ, आप प्रवेश नहीं कर सकेम्।" --" कंचुकी ! मैं वास्तविक सुग्रीव हूँ। पहले कोई धूर्त व्यक्ति आया होगा। तुम उस धूतं को पकड़ों। वह पाखण्डी कुछ अनर्थ नहीं कर डाले, इसलिए अन्तःपुर और युवराज को सावधान कर दो। मैं यही हूँ।" रानी और युवराज (बालीकुमार) को सूचना मिलते ही अन्तःपुरस्थ माया सुग्रीव को रोका। रानी, कुमार तथा अन्य स्व-परजन, दोनों में से किसी एक को चुनने में असमर्थ थे। दोनों सर्वथा समान थे। कोई अन्तर नहीं था उन दोनों में होते-होते दोनों के पक्ष हो गए। सेना में भेद पड़ गया। कुछ एक-ओर तो कुछ दूसरी-ओर । दोनों में युद्ध छिड़ गया। दोनों वीर, योद्धा और उनको सेना लड़ने लगी। भारी लड़ाई हुई। कालविक सुग्रीव को विशेष क्रोध आया। झूठे, पाखण्डी एवं दंभी को सचाई का ढोन कर के आगे बढ़ता हुआ देख कर, सच्चे एवं आक्रांत का शांत रहना महा कठिन होता है । सुग्रीव उस ढोंगी के साहस तथा गर्वोक्ति सहन नहीं कर सका । वह स्वयं शस्त्र धारण कर उस धूर्त को ललकारता हुआ सम्मुख आया। साहसमति भी तत्पर हो गया। दोनों परस्पर बुद्ध करने लगे। आघात-प्रत्याघात के दांव चलने लगे। दोनों बलवान् और युद्धकला विशारद थे। बहुत देर तक युद्ध होता रहा। शस्त्र समाप्त होने पर दोनों मल्ल की भांति भिड़ गए । मल्लयुद्ध भी बहुत देर तक चला । वास्तविक सुग्रीव ने हनुमान से सहायक बनने का निवेदन किया। किन्तु 'सच्चाई किसके पक्ष में है'--यह निर्णय नहीं हो सकने के कारण वे दर्शक ही रहे । इधर नकली सुग्रीव--साहसगति ने भुलावा दे कर सुग्रीव को दबाया और मार्मिक प्रहार कर के उसे निर्बल बना दिया। वह उठ कर नगर के बाहर किसी * यह वृत्तांत पृ. ३८ पर आ चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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