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तीर्थंकर चरित्र
हुँ । मूर्ख ! शंबूक का वध तो मेरे प्रमाद एवं अनजान में हुआ है । बह कृत्य मेरे पराक्रम का नहीं था । किन्तु तू अपने को वीर एवं योद्धा मानता हो, तो में तत्पर हूँ । इस बनवास में भी में यमराज को तेरा दान कर के संतुष्ठ कर सकूंगा " - लक्ष्मणजी ने खर को सम्बोधित कर कहा
लक्ष्मणजी की बात सुन कर खर के क्रोध में अभिवृद्धि हुई । वह तीक्ष्ण एवं घातक प्रहार करने लगा । लक्ष्मण ने भी बाण-वर्षा कर के उसे ढक दिया। इस प्रकार खर और लक्ष्मण के मध्य भयंकर युद्ध हुआ । उस समय आकाश में देववाणी सुनाई दो कि-"जो वासुदेव के साथ भी इतनी वीरता से लड़ रहा है-- ऐसा खर नरेश महान् योद्धा है ।" यह देववाणी सुन कर लक्ष्मण ने सोचा- 'खर के वध में विलम्ब होना, खर के महत्त्व को बढ़ाने के समान हैं।' उन्होंने 'क्षुरप्र ' अस्त्र का प्रहार कर के खर का मस्तक काट डाला । खर के गिरते ही उसका भाई दूषण, राक्षसों की सेना ले कर युद्ध में आ डटा, किन्तु थोड़ी ही देर में लक्ष्मण ने उसका और उसकी सेना का संहार कर डाला !
युद्ध समाप्त कर बीर विराध को साथ ले कर लक्ष्मणजी राम के पास पहुँचे । उस समय उनका बायां नेत्र फड़क रहा था | उन्हें अपने और देवी सीता के विषय में अनिष्ट की आशंका हुई । निकट आने पर राम को अकेले तथा विषाद में डूबे देख कर लक्ष्मण को अत्यन्त खेद हुआ । लक्ष्मण, राम के अत्यन्त निकट पहुँच गए, किन्तु राम को इसका ज्ञान ही नहीं हुआ। वे बाकाश की ओर देखते हुए कह रहे थे ।
" हे वनदेव ! में इस सारी अटवी में भटक आया, किन्तु सीता का कहीं पता नहीं लगा । कहां होगी वह ? कौन ले गया उसे ? में भ्रम में क्यों पड़ा ? लक्ष्मण की शक्ति पर विश्वास नहीं कर के मैंने कितनी मूर्खता की ? मेने उसे अकेली क्यों छोड़ी ? हा उधर भाई लक्ष्मण हजारों शत्रुओं के मध्य अकेला ही जूझ रहा है । में उसे भी अकेला छोड़ कर चला आया बोर यहाँ सीता भी किसी दुष्ट के फल्दे में पड़ गई । क्या करूँ अब ? हा, प्रभो ।" इस प्रकार बोलते हुए शोकाकूल हो कर रामभद्रजी पुनः मूच्छित हो गए । उनकी यह दशा देख कर लक्ष्मण भी विचलित हो गए । वे बन्धूवर से पास बैठ कर कहने
लमो
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"हे आयं ! यह क्या कह रहे हैं आप ? में आपका भाई अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर आपके पास आ गया हूँ । लक्ष्मण के वचन सुनते ही राम में स्फूर्ति आई | लक्ष्मण का माना उनके लिए अमृत तुल्य हुआ। वे उठे और लक्ष्मणजी को अपनी
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