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सीता का अपहरण
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हठात् पुत्र-शोक उदित हो गया । वह क्रोधित हो कर नागिन की तरह तड़पी और शीघ्र हो पाताल-लंका में पहुँच कर पुत्रधात का वृत्तांत अपने पति खर को सुनाया । पुत्र विरह की बात सुनते ही शत्रु के प्रति भयंकर क्रोध से जलते हुए खर नरेश ने विद्याधरों की सेना ले कर राम-लक्ष्मण पर चढ़ाई करदी और दण्डकारण्य में पहुंच गए।
सीता का अपहरण
ख र नरेश को सेना-सहित युद्धार्थ आता देख कर लक्ष्मणजी उठे और ज्येष्ठ-भ्राता से बोले--"पूज्य ! आप यहीं बिराजें और मुझे आज्ञा प्रदान करें। आपके आशीर्वाद से मैं इस गीदड़-दल को छिन्न-भिन्न करूंगा।" लक्ष्मणजी का अत्याग्रह देख कर रामभद्रजी ने आज्ञा देते हुए कहा--" तुम्हारी यही इच्छा है, तो जाओ । किन्तु संकट का समय उपस्थित हो जाय. तो शीघ्र ही सिंहनाद करना। में उसी समय पहुँच जाऊँगा।"लक्ष्मणजी ने प्रणाम किया और धनुष-बाण ले कर चल दिए । युद्ध प्रारम्भ हुआ। जिस प्रकार सर्पसमूह पर गरुड़ झपटे, उसी प्रकार शत्रु-दल पर लक्ष्मण प्रहार करने लगे। लक्ष्मणजी का प्रबल पराक्रम, अनुपम शूरवीरता एवं अटूट शक्ति के आगे ख र-सेना धराशायी होने लगी। सैनिकों का मनोबल टूटने लगा । दूर खड़ी हुई चन्द्रनखा युद्ध का दृश्य देख रही थी। वह लक्ष्मण का विनाश देखना चाहती थी । ज उसने देखा कि उसकी सेना दब रही है, तो चिन्ता-सागर में मग्न हो गई--“अब क्या करूं।" तत्काल उसे एक युक्ति सूझी । वह वहाँ मे उड़ कर अपने भाई रावण के पास पहुंची और कहने लगी--
“बन्धु ! दण्डकारण्य में राम और लक्ष्मण--दो भाई आये हुए हैं। वे बड़े गर्वयण्ड हैं । तेरे भानेज को विद्या साधते समय लक्ष्मण ने मार डाला । तेरे बहनोई महाराज उनसे युद्ध करने गये हैं। राम के सीता नाम की पत्नी है । वह रूप में देवांगना को भी लज्जित करे ऐसी त्रिभुवन-सुन्दरी है। उसके समान रूपवती स्त्री इस संसार में दूसरी कोई नहीं । वह चक्रवर्ती के स्त्रीरत्न के समान है । भाई तुम चक्रवर्ती के तुल्य हो। संसार में जो उत्तम वस्तु होती है, उसके भोक्ता नरेन्द्र ही होते हैं । इसलिए उस अनुपम स्त्री-रत्न को प्राप्त कर सुखी बनो । विना उस महिला-रत्न के तुम्हारा अन्तःपुर दरिद्र के समान रहेगा और तेरा ‘महाराजाधिराज' नाम निरर्थक रहेगा।
वहिन की बात सुन कर रावण मोहान्ध हो गया । वह तत्काल अपने पुष्पक विमान
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