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तीर्थकर चरित्र
की आकृति दिखाई दी। विशेष देखने पर उसे ज्ञात हुआ कि ये चरण किसी सुलक्षा सम्पन्न विशिष्ट व्यक्ति के हैं। वह अनुकरण करती हुई आगे बढ़ी। कुछ दूर चलने पर उसे एक वृक्ष के नीचे दो पुरुष और एक स्त्री दिखाई दी। उसकी प्रथम दृष्टि श्रीरामभद्रजी पर पड़ी। उन का सुन्दर रूप, यौवन और सुगठित सबल अंग देख कर वह आसक्त हो गई। शोक का स्थान काम ने ले लिया। पुत्र-वियोग भूल कर वह कामातुर हो गई । उसने रामभद्रजी को मोहित करने के लिए वैक्रिय प्रक्रिया से अपने आपको अप्सरा के समान अनुपम सुन्दरी बना लिया और राम के निकट आई। उसे देख कर श्रीराम ने पूछा
" भद्रे ! इस यमधाम जैसे दारुण दंडकारण्य में अकेली किस लिए आई "
--"महानुभाव ! मैं अवंती नरेश को प्रिय पुत्री हुँ । हत-रात्र को मैं अपने प्रासाद पर सोई थी कि कोई खेचर मेरा हरण कर यहाँ ले आया ) इस बन में किसी अन्न, विद्याधर कुमार ने हमें देखा। वह भी मुझे देख कर मोहित हो गया । वह तत्काल खड्नर कर मेरा हरण करने वाले से भिड़ गया। दोनों मत्त-हाथियों के समान आपस में लड़ने लगे । अन्त में दोनों गम्भीर रूप से घायल हो कर मिर पड़े और थोड़ी देर में ठण्डे पड़ गए। मैं अकेली निराधार रह गई ! मैं इधर-उधर भटकती हई आश्रय की खोज में यह चली आई। पुण्य-योग से मुझे आप जैसे मव्य-पुरुष की प्राप्ति हुई है। अब आप मुझे शीघ्र ही स्वीकार कर लें। मैं अपने-आपको आपके चरणों में समर्पित करना चाहती है। आय मेरी प्रार्थना अवश्य स्वीकार करें।
चन्द्रनखा की मानसिक स्थिति, उसके चेहरे और आँखों से प्रकट होती हुई कानविव्हलता एवं सहसा प्रणय-याचना से भ्रातृ-युगल के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ। उन्होंने सोचा--"यह कोई मायाविनी नारी है और कोई जाल रच कर अपने को फाँसने आई है।" एक-दूसरे ने सावधान रहने का संकेत किया।
“सुन्दरी ! मैं तो प्रणय-बन्धन में बंधा हुआ हूँ। मेरी यत्नी मेरे साथ है । इसलिए मैं तो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण नहीं कर सकतुङ । किन्तु लक्ष्मा अकेला है । तु उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न कर।"
चन्द्रनखा, लक्ष्मणजी के पास गई और प्रणय प्रार्थना की। लक्ष्मणजी ने कहा---
--" आप पहले मेरे ज्येष्ठ-भ्राता के पास गई थी । आपके हृदय में उन्हें स्थान मिल चुका है। इसलिए आप तो मेरे लिए पूज्य भावज हो गई । अब मैं आपके स; प्रणय का विचार ही नहीं कर सकता।"
याचना की उपेक्षा से हुए मान-मर्दन ने उसके हृदय में ग्लानि उत्पन्न कर दो।
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